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19 Jul 2017 · 1 min read

वक्त की पहचान

छोड़ कर वक्त पीछे
तूं देख मैं बढा हूँ,
उलट थीं हवायें
विकट रास्ते थे,
राहों में मेरे
कांटे बीछे थे,
इन विषम परिस्थिति से
कब मैं डरा हूँ
छोड़ कर वक्त पीछे
तूं देख मैं बढा हूँ।
जिन्हें माना अपना
वो दुश्मन बने थे
रोकदे राह मेरे
हर मोड़ पर खड़े थे,
खण्ड – खण्ड हो गया
पर कहा मैं रुका हूँ,
छोड़ कर वक्त पीछे
तूं देख मैं बढा हूँ।
न आंखों मे नीन्द
न चैन एक पल था
खुले आंखों में मेरे
स्वप्न ही जवां था
चला था, गीरा था
न फिर भी झूका हूँ,
छोड़ कर वक्त पीछे
तूं देख मैं बढा़ हूँ।
समय कहा रूकता है
मैं जानता था,
वक्त की यहमीयत को
पहचानता था,
चूर – चूर हो गया
किन्तु चलता रहा हूँ,
छोड़ कर वक्त पीछे
तूं देख मैं बढ़ा हूँ।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
9560335952

Language: Hindi
504 Views
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