लेखन हमारी नज़र में
#लेखन_हमारी_नज़र_में
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साहित्य मन का दर्पण होता है, सृजनशीलता हर मानवमात्र में होती है, लेखन का आपके मस्तिष्क एवं मनोभावों से गहरा नाता है, जरुरत है तो बस मस्तिष्क एवं मनोभावों का आपसी तारतम्य स्थापित होना।
जैसे ही मस्तिष्क का भावनाओं से साक्षात्कार होता है लेखनी चल पड़ती है।
लेखन के लिए हृदय के संग मस्तिष्क का जुड़ाव बहुत ही जरूरी है, कारण जबतक हम मस्तिष्क को क्रियाशील नहीं रखते तबतक मन के उद्गारों को गद्य या पद्य दोनों ही विधाओं में कागद् पर प्रकट कदापि नहीं कर सकते। लेखन का हमेशा से ही मनोभावों से गहरा संबंध रहा है।
दिमाग में उत्पन्न विचारों, कल्पनाओं को कागज पर उकेरना एक चित्रकार और लेखक की कला है, फर्क सिर्फ इतना है की एक रंगों से अपनी कला को सजाता है तो एक शब्दों से। दोनों कलाओं में महत्वपूर्ण है जुड़ाव, कहीं रंगों का तो कहीं शब्दों का।
जब तक एक चित्रकार अपनी रचना को आपस में जोड़ नहीं देता तब तक वो चित्र नहीं बनता उसी तरह एक लेखक जब तक अपनी रचना के हर हिस्से को एक दूसरे से नहीं जोड़ देता वो रचना नहीं कहलाती।
जरूरी नहीं है कि व्याकरण में निपुण व्यक्ति ही अच्छा लिख सके बल्कि लेखन इस बात पर निर्भर करता है कि लेखक की सोच कहां तक जाती है। व्यस्तताओं के बीच आदमी को विमर्श के लिए समय अवश्य ही निकालना चाहिए ताकि बह रही हवाओं के इतर हम वास्तविकता और तथ्यों के करीब बने रहें।
लेखन के लिए कोई भी काल, परिस्थिति, स्थान, अवस्था, गतिविधि उपयुक्त या अनुपयुक्त नहीं होता, बस केवल और केवल रचनाकार की दूरदर्शिता मायने रखती है। एक रचनाकार गरीबी में रहकर अमीरी लिख सकता है, अमीरी में रच बस कर गरीबी को जीवन्त कर सकता है परन्तु लेखन में भाव उत्पन्न तभी होंगे जब उन परिस्थितियों से उसका जुड़ाव हो, साक्षात्कार हो।
हर इंसान जन्म से साहित्यकार होता है कारण मुख से निकला पहला ही शब्द “मां” हमें साहित्य से रूबरू कराता है लेकिन सभी लेखन करते नहीं कारण आपकी सोच में समय के साथ आने वाला परिवर्तन आपको अलग-अलग दिशाओं में मोड़ता चला जाता है।
लेखक वहीं बनता है जो चिंतनशील होता है, मन के भावों को हूबहू शब्दों का जामा पहना कर एक आकार प्रदान करता है।
लेखन में कई तरह के गतिरोध आते हैं, कभी शब्दों का अकाल, कभी समय की वाध्यता, कहीं विषय की उदासीनता तो कभी भावों का विलुप्त होना परन्तु इन गतिरोधों का एक सुंदर और सुगम समाधान है पाठन कार्य। आप नियमित रूप से दूसरों को पढ़ें। : एक लेखक का काम सिर्फ लिखना भर नहीं है उसे पढ़ना भी चाहिए परन्तु एक पाठक के नजरिये से नहीं बल्कि एक लेखक के नजरिये से। एक लेखक का नजरिया विश्लेषण करने का होता है, ये जरुरी नहीं की आप किसी अच्छे और जानेमाने लेखक को ही पढ़ें, आपको ये जानना है की कैसे लिखी गयी रचना को और बेहतर किया जा सकता है, कैसी कल्पना की गयी है।
लेखन के लिए किसी विशेष स्थान या विशेष परिस्थिति का होना हमारे नजरिए से आवश्यक नहीं, यह तो भावनाओं का बहाव है जो आपको कहीं भी, कभी, किसी भी क्षेत्र में बहाकर ले जा सकता है। रात को जगा सकता है, चलते मार्ग में रोक सकता है, मंदिर हो या शमशान, विद्यालय हो या मदिरालय यह कहीं भी आपको लिखने को बाध्य कर सकता है।
लेखन कार्य, खाते, पिते, सोते, चलते, पढ़ते कहीं भी हो सकता है जरुरत है तो सिर्फ भावों के प्रस्फुटन का। कभी विरही को देख विरह, तो रूपसी या प्रेमिका को देख श्रृंगार, परिस्थितियों के अनुसार भाव उपजते हैं परन्तु लेखन मनोमस्तिष्क के जुड़ाव से ही संभव होता है— हमारा तो यहीं मानना है—- आपका आप जानें।
पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’