लेखक/साहित्यकार का ईमान/कर्तव्य
लेखक/साहित्यकार एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसमें देखने,समझने और महसूस करने की चमत्कारी शक्ति होती है अपनी बात को प्रेम से आवेग से रखने की दुस्साहसी प्रकृति भी होती है।
मेरे अनुसार लेखक का हृदय माँ का ममतामयी हृदय होता है जो बालक की भावनाओ के अनुसार बगैर बोले ही बालक की वर्तमान एवं भविष्य की समस्याओं को समझ लेता है जान लेता है और उसकी रक्षा के लिए शेरनी की भांति अपने शेर को भी नहीं बक्सता ।
एक लेखक के लिए जरूरी है कि वह निष्पक्षता ,निस्वार्थता जरूर बनाए रखे बरना उसकी लेखनी सौहार्द बनाने के स्थान पर सौहार्द बिगाड़ने बाली हो सकती है । इसलिए लेखक को राजभक्ति से ज्यादा जनभक्त होना चाहिए क्योंकि आम जनता ही लेखक के विचारों का स्रोत है। और यही जनता एक लेखक की अभिव्यक्ति की आजादी का पूर्ण सम्मान करती है जबकि सरकारें उस आजादी को अपने अनुसार प्रयोग कर उसको गुलाम बनाकर रखना चाहती है और समय समय पर कुछ पुरुष्कार/पद प्रदान कर उसके विचारों को भांड की भांति प्रयोग करना।
वास्तव में लेखक का साहित्यकार के रूप में ना कोई धर्म होता और ना ही जाति ना उसका कोई अपना देश होता ना क्षेत्र। वह सूर्य के प्रकाश की भांति समस्त पृथ्वी को प्रकाश देता है और वह शीतल वायु की तरह सभी का पसीना सुखाता है । हाँ निजी तौर पर जरूर उसका अपना धर्म भी होता है जाति और देश भी किन्तु इनको कभी भी उसे अपनी लेखनी में आड़े नही आने देना चाहिए और ना ही किसी व्यक्तिगत पूर्वाद्ध को ।
वास्तव लेखक को निस्वार्थ बगैर किसी लाभ और लालच के अपनी लेखनी करनी चाहिए उसे अपने लेखन को व्यापार का साधन नही बनाना चाहिए क्योकि व्यापार समस्याओं, कोमल भावनाओ का नही होता बाजार की मांग का होता है । बाजार में जनता की समस्या कभी मांग नही बनती क्योकि बाजार के ग्राहक वो लोग होते है जो केवल ख़ुशी ही देखना चाहते हैं, समस्या या किसी का दर्द खरीदना नही। इसलिए लेखक को अपनी लेखनी को बाजार की मांग से ज्यादा समाज की सकारात्मक एवं विकासात्मक जरूरत के हिसाब से लिखना चाहिए फिर चाहे वह जरूरत केवल मात्रा एक प्रतिशत लोगों की ही क्यों ना हो।
पुरुस्कार, इनाम राजभक्ति किसी भी लेखक की लेखनी को खरीद/प्रभावित नही कर सकते हाँ लेखक को तात्कालिक ख़ुशी जरूर प्रदान कर सकते है किंतु उसकी आंतरिक भावनाओं को छू नही सकते। कोई भी पुरुस्कार लेखक के लिए काफी नही होता अगर काफी होता है तो उस बदलाब उस दर्पण की समाज में स्वीकारोक्ति जिसे वह समाज में चाहता है जिसे वह समाज को दिखाना चाहता है।
लेखक अपने एक एक शब्द को अपने बच्चे की भांति पालता है पोसता है इसलिए लेखक के शब्द अमूल्य और बहुमूल्य होते है जिनकी कीमत किसी पुरूस्कार से अदा नही की जा सकती हाँ पुरुष्कार एक सम्मान जरूर हो सकता है लेखक की निस्वार्थ और निडर सामाजिक सेवा का जिसे समाज स्वीकारता है।
किसी भी लेखक को भूत की घटनाओं से समझ विकसित कर उसे समाज के सामने वर्तमान समस्याओं से जोड़कर पेश करना चाहिए जिससे कोई नकारात्मक पुनरावृत्ति ना हो और समाज में सौहार्द एवं विकास का पथ बना रहे। लेखक को कभी भी अपनी लेखनी को बदला लेने का जरिया नही बनाना चाहिए क्योकि सभ्य समाज में अंग भंग कानून कभी भी मान्य नही किया जा सकता है और साहित्य समाज में तो बिलकुल भी नही।
लेखक उस देवता से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है जिसके हाथों में धार धार हथियार होते है और जो केबल शत्रु को मारकर समाज को आजाद कराता है, बल्कि लेखक अपनी लेखनी से समाज के शत्रुओं का हृदय परिवर्तित कर उनको उसी समाज का सेवक बनाने की असीम अलौकिक शक्ति रखता है जैसे गौतम बुद्ध ने अंगुलिमार को,ऋषि ने रत्नाकर से व्यास को , कलिंग जनसंहारक अशोक, या फिर राक्षस कुल में जन्मा विभीषण आदि को जनसेवक बनाया । मानव हत्या फिर चाहे वह किसी भी रूप में क्यों ना हो लेखक के लिए असहनीय होती है इसलिये लेखक हृदय परिवर्तन पर ज्यादा जोर देता है जिसके द्वारा लेखक ईस्वर के उस पुत्र/पुत्री को भी स्वीकारता है जो समाज में गलत पथ पर चल निकलता है। और वास्तव यही सबसे बड़ा सम्मान है उस निराकार शक्ति का या ब्रह्म शक्ति का जिसने सभी को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया है। इसलिए लेखक को सकारात्मक और विकासात्मक बदलाब की ओर समाज को राह दिखानी चाहिए ना की भूतकाल की गलतियों को बदला लेने के साधन के रूप में।
एक लेखक के अंदर ही ऐसी करुणा होती है जिसके द्वारा वह प्रत्येक समाज की आँखों में आंसू ला सकता है और प्रत्येक समाज को आवेग में भी ला सकता है किंतु इसके लिए जरूरी है निष्पक्षता और भूत भविष्य और वर्तमान की गम्भीर सोच।
वास्तव में लेखक समाज के अंदर शांत ज्वालामुखी के रूप में समाज को चारागाह और सुंदर भूमि प्रदान करता है तो वही सक्रीय ज्वालामुखी के रूप में पृथ्वी का रूप बदलने वाला लावा । और लेखक को अपना यह कार्य समय परिस्थित के अनुरूप जरूर करते रहना चाहिए ।
अगर इंसानी समाज में कोई नही थकता तो वह है लेखक और कोई नही मरता तो वो भी एक लेखक ही है।
इसलिए लेखक को राजभक्ति से ज्यादा जनभक्ति में ही अपने विचारों का स्रोत खोजते रहना चाहिए क्योकि राज-पाट के सामने समय का जल्लाद हर वक्त खड़ा रहता है अपनी कर्म की उत्सुकता में ।