रौद्र प्रकृति
शान्त और शालीन थी प्रकृति
बनती जा रही है निष्ठुर,उदण्ड,
अदयामय और प्रतिक्रोधित
नित मानवीय हस्तक्षेप से
भौतिकवादी प्रहारों से
विकसित बनने की होड़ में
प्रकृति को ही कर दिया
अविकसित,खोखला और अपंग
काट डाले असंख्य वृक्ष
तोड़ दिए विहंगम नीड़
कर दिया घर से बेघर
क्रोधित और आवेशित
प्रकृति अब नहीं थमेगी रूकेगी
धार लेगी विनाशक रूप
पिंघला देगी ध्रुवों पर जमी हिम
बरसा देगी घने मेघों को
मचा देगी चहुँओर ताँडव
कर देगी विनाश सृष्टि का
ज्वालामुखी और भूकंप से
ज्वारभाटा और तुफानों से
अब भी संभल जाओ
मना लो, मान जाएगी
कद्र करो रुपों- प्रारूपों की
बंद करो हस्तक्षेप, छेड़खानी
मत बनो अंधे भौतिकता में
कर दो फिर से हरी भरी
लगाकर असंख्य वृक्ष
बनाओ समृद्ध और प्रफुल्लित
हो जाने दो पुनः संतुलित
फिर भोगना प्रकृति को
होना आनन्दित और प्रसन्नित
समृद्ध और खुशहाल
सुखविंद्र सिंह मनसीरत