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8 Jul 2021 · 1 min read

रूप का दर्प

रूप का दर्प यौवन सजाता रहे
मन का पंछी प्रणय गीत गाता रहे

तुम गुलाबों सा खिलकर महकती रहो
मेरी साँसों में पल पल उतरती रहो

नैन अपलक निहारे,निहारे तुम्हें
अप्सराओं का जादू लजाता रहे

रूप का दर्प…..

ज्ञान पथ पर सहें लाख वो यातना
या करें रात दिन तप कठिन साधना

बुद्ध तब तक भला बुद्ध होते कहाँ
पास जब तक न कोई सुजाता रहे

रूप का दर्प………

नेह-पीयूष की धार बनकर बहो
मन के मधुवन में तुम राधिका सी रहो

प्रेम, परिणय में चाहे बँधे ना बँधे
कृष्ण-राधे को संसार गाता रहे

रूप का दर्प……..

होम जीवन करूँ दूसरों के लिए
राम सा मैं स्वयं भी कहाँ हूँ प्रिये

तुम हो गंगा सी पावन मेरी दृष्टि में
लोक अंगुली उठाए उठाता रहे

रूप का दर्प…….

कण्ठ धारण किए जो गरल सर्वदा
शिव उमा के रहे हैं, रहेंगे सदा

पर जटा में न गंगा को रोकें अगर
तो प्रलय में जगत डूब जाता रहे

रूप का दर्प……..

© शैलेन्द्र ‘असीम’

Language: Hindi
Tag: गीत
2 Likes · 4 Comments · 431 Views
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