रिश्तो की विडंबना
कभी – कभी इंसान अपनी महत्वआकांक्षाओं में इतना लिन हो जाता हैं, उसे समाज, घर, देश, की परवाह नही होती | रिश्ते ताने – बाने का वह गला घोट देता हैं.
कुछ ऐसी ही कहानी मंजू देवी की हैं, जो हालात कि मारी महत्वकांक्षा से परे हैं | उसके पति मोहनलाल का किराने का दुकान था, जिससे पुरे परिवार का पालन पोषन होता था | मगर कालगती के चक्र ने वक्त ऐसी पहेली बनाई , मोहनलाल का कुछ वर्षो के बाद निधन हो गया. मोहनलाल के भाईयों ने उसकी संपत्ति ऐंठ ली|
उसकी पत्नी के साथ चार बच्चों को घर से निकाल दिया |
पुरा परिवार निष्ठुर ,संवेदनहीन ,महत्वकांक्षी हो गया | मंजू के पिता खेती करते थे, भाई के हाथों में सत्ता आने के बाद , भाई ने बहन को घर में ना रखा |
मंजू के साथ उसके चार बच्चों की हालत बद से बत्तरा , चिंताजनक हो गई , ना सर पर छत हैं, ना दो जुन की रोटी, पापी पेट के लिए , आस पड़ोस के लोगो ने भी कोई दरियादिली नहीं दिखाई |
मजबूरन मंजु को मुक्तिधाम में रात गुजराना पङता हैं, एक तरफ शमशान में जलती चिता, दुशरी तरफ जलता चुल्हा, जो अमानवता की परिकाष्ठा को हिला दे |
यह देखकर दिल और आत्मा टुटेजा जाता हैं, शव कि जली लकङी से आग सेकते हुए ये लोग. मंजू की तिन बेटी और एक बेटा हैं, रमा, लता, सरिता ,केशव, रचना,
रमा सातवीं में पढ़ती थी, लता, सरिता पाँचवीं में, केशव रचना दुशरी में थे. इनकी पढ़ाई छुट गई हैं,|
कभी जिंदगी का मजा लेने वाले क्षण को याद करते हुए , मंजु और इनके बच्चों की आँखें भर आती हैं, भला इतना भी पापी निष्ठुर कोई हो सकता हैं|
बच्चे मजदूरी करने पर विवश हैं, ये कहाना जिंदगी की वास्तविकता को दिखाता हैं, इंसान मतलबी और भौतिकवादि हो चला हैं, जहाँ पर रिश्ते – नाते संवेदनशुन्य हो गए हैं||||
अवधेश कुमार राय..