रिश्तों की दुकान
रिश्तों की दुकान
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रिश्तों की दुकान सज रही
आओ चलें मोल के लायें,
भरी महफिल लगा नुमाइश
सबको अपना सगा बतायें।
बाप का रिश्ता सबसे सस्ता
माँ का बाप से कुछ ज्यादा,
भाई का कोई पूछ नहीं है
बहन बिके भाई से आधा।
बेटे का यहाँ भाव चढ़ा है
बेटी के खरीददार नदारद,
दादा दादी बीते डेट के
ढ़क कर रखा माल पुरातन।
रिश्ता यहाँ पति पत्नी का
परिस्थिति के संग ढ़ला है,
कहीं प्रेम व त्याग में बिकता
कहीं वफा से दूर खड़ा है।
रिश्तों के बाजार में यारों
बिचौलिए का रोल बड़ा है,
जैसा चाहे बेंच दे जिसको
संग उसके खरीददार खड़ा है
किन्तु ये बाजार ए रिश्ता
इस युग की कह रही कहानी,
स्वार्थपरता आज हकीकत
बना हुआ रिश्तों की डाली।
“सचिन” की आंखें भरी हुई
देख रहीं युग की बेमानी,
जो रिश्ते अनमोल जगत में
उनकी ऐसी करुण कहानी।
………….✍
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
?? मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण , बिहार