राहों की शिकायत क्यों मंज़िलों से करते हो
राहों की शिकायत क्यों मंज़िलों से करते हो
क्यों न हार का स्वागत हौसलों से करते हो
इस तरह बदल ली है अपनी आपने सीरत
झूठ की वकालत भी आइनों से करते हो
हाथ कुछ न आया औ चैन भी गँवा बैठे
होड़ इतनी क्यों ज्यादा दूसरों से करते हो
दूर तुम करोगे इस ज़िन्दगी के तम कैसे
रौशनी ही जब इसमें जुगनुओं से करते हो
दिख रही हैं बाहर से खोखली ही दीवारें
बात ‘अर्चना’ फिर क्या चौखटों से करते हो
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद (उ प्र)