रास्ते का पत्थर (कविता)
ओह निराशा !
तू कब जाएगी मेरे ह्रदय से ,
प्रतीत तो होता है यही ,
के तू ना जाएगी मेरे ह्रदय से .
तभी तो मैं जहाँ जायुं ,
वहीँ तू आ धमकती है.
जहाँ भी मेरी नज़र जाये ,
तू ही दृष्टि गोचर होती है.
जो सपने मैं देखना चाहूँ ,
तो उसे खंडित कर देती है.
जो अभिलाषा मन में पालूं,
उसका खून कर देती है.
मैं भाग्य को दोष देती हूँ,
वोह मुझे दोष देता है.
कहता है मुझसे की मैं नहीं,
यह निराशा तेरी शत्रु है.
तूने ही से पोषित किया हुआ है.
अतएव मैं नहीं ,यह निराशा
तेरी सफलता के रास्ते का पत्थर है.
मगर फिर भी ,इतना सूने पर भी ,
हे निराशा ! तू ना गयी मेरे ह्रदय से.
तू कहती है की मैं नहीं ,
तेरा दुर्भाग्य तेरी सफलता के रास्ते
पत्थर है.
अब तो यह ईश्वर ही जाने ,
कौन किसके रास्ते का पत्थर है.