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23 Sep 2016 · 7 min read

‘ रावण-कुल के लोग ‘ (लम्बी तेवरी-तेवर-शतक) +रमेशराज

बिना पूँछ बिन सींग के पशु का अब सम्मान
मंच-मंच पर ब्रह्मराक्षस चहुँदिश छायें भइया रे! 1

तुलसिदास ऐसे प्रभुहिं कहा भजें भ्रम त्याग
अनाचार को देख न जो तलवार उठायें भइया रे! 2

अब असुरों का पार नहिं ऐसा है फैलाव
खल बल-दल के साथ यहाँ उत्पात मचायें भइया रे! 3

खल को कहते संत अब चैनल या अखबार
बुद्धिहीन हम लोग खलों को शीश नबायें भइया रे! 4

माया-मृग के जाल में उलझा दिया अवाम
पर्णकुटी पै खडे़ दसानन अब मुस्कायें भइया रे! 5

सभा-सभासद मौन सब दुष्ट लूटते लाज
कान्हा भी अब द्रौपदि को लखि तैश न खायें भइया रे!6

गौतम तिय की याद कर और समझि श्रीराम
भगवा वसनी के पग जोगिन छूती जायें भइया रे! 7

संत-अंक में सुख चहें ईश-अंक तजि नारि
नित छलिया कंठीधारी को नारि रिझायें भइया रे! 8

चोर शाह को अब पकड़ झट थाने लै जाय
थानेदार चोर के सँग में जाल बिछायें भइया रे! 9

चलइ जोंक जल वक्रगति जद्यपि सलितु समान
खल सज्जन सँग कुटिल चाल से बाज न आयें भइया रे! 10

अबला के रक्षार्थ जिन गीधराज-सी मौत
ऐसे बलिदानी ही जग में नाम कमायें भइया रे! 11

तुलसी निर्भय होत नर सत्ता-कुर्सी बैठि
जनता जिनको चुने आज वे ही गुर्रायें भइया रे! 12

ऐसे मानुष अधम-खल दिखते कलियुग बीच
एक देश को लूट दूसरा लूटन जायें भइया रे! 13

कामकला की पूर्ति-हित जड़हि करें चेतन्य
राम आज के संग अहल्या रास रचायें भइया रे! 14

काम केलि नित जो करें नगर-वधू के संग
ऐसे साधु अखण्ड ब्रह्मचारी आज कहायें भइया रे! 15

नाम ललित, लीला ललित, ललित संत के अंग
धर कान्हा का रूप गोपियाँ नित्य रिझायें भइया रे! 16

परमानंद कृपाय तन मन परिपूरन काम
यही सोच तस्कर नेता को मीत बनायें भइया रे! 17

अँगरेजी से मोह अति, गोरों से अनुराग
हिन्दी को अब हिन्दुस्तानी हीन बतायें भइया रे! 18

लरिकाई कौ पैरिबो तुलसी अब भी याद
आँख लड़ाते हुए वृद्धजन गंग नहायें भइया रे! 19

रावण-कुल के लोग हैं इनको बदी सुहाय
ये कपोत लखि तान गिलोलें मन हरषायें भइया रे! 20

सूधे मन सूधे वचन सूधी हर करतूत
कलियुग में ऐसे सब ज्ञानी मूढ़ कहायें भइया रे! 21

बन्धु बधूरत कह कियौ बचन निरुत्तर बालि
किन्तु यही सुग्रीव किया तो प्रभु मुस्कायें भइया रे! 22

काम-कला में लिप्त जो जिनके मन धन-लोभ
भगवा वसन पहन वैरागी जग भरमायें भइया रे! 23

जो नहिं देखा, नहिं सुना जो मन हू न समाय
ऐसे चमत्कार कर ढोंगी मौज उड़़ायें भइया रे! 24

अपनी पूजा देखकर मन हरषैं अति काग
स्वाभिमान के धनी हंस अब ठोकर खायें भइया रे! 25

भजन करें अब संत यौं-‘माया-पति भगवान’
हरषैं उनको देख दान जो लोग चढ़ायें भइया रे! 26

हर मुश्किल नर छूटता कर-कर मंत्री-जाप
सब चमचे अब मंत्री को भगवान बतायें भइया रे! 27

कल अनेक दुख पायँ नर, सिर धुनि-धुनि पछितायँ
अगर विदेशी व्यापारी को देश बुलायें भइया रे! 28

चढें अटारिन्ह देखहीं नगर-नारि नर-वृन्द
हाथ जोड़कर जब बस्ती में नेता आयें भइया रे! 29

परमानंद प्रसन्न मन क्यों हो पुलकित गात
जब पश्चिम की वायु विषैली चहुंदिश छायें भइया रे! 30

यह कलिकाल कुरंग तन चन्दन-लेप लगाय
असुर संत-से जग को मूरख विहँस बनायें भइया रे! 31

अभय किये सारे असुर कृपा-दृष्टि करि वृष्टि
अजब आज के राम जिन्हें अब खल ही भायें भइया रे! 32

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेश
इसकी नाभि बसा अमृत, नहिं वाण सुखायें भइया रे! 33

जनता का पी खून नित मसक उड़ैं आकाश
कछुआ-छाप अगरबत्ती अब काम न आयें भइया रे! 34

महा अजय संसार रिपु जीति सकै सो वीर
कर-कर युद्ध पछाड़ो इनको भाग न जायें भइया रे! 35

नश्वर रूपा जगत ये सब जानत यह बात
दीपक-दीपक रीझि पतंगे प्राण गँवायें भइया रे! 36

मैं देखूँ खल बल दलहिं इन पर करूँ प्रहार
इस साहस से भरी हुई आवाज न आयें भइया रे! 37

नेता माँगे कोटि घट मद अरु महिष अनेक
अजगर जैसे निशदिन अपने मुँह फैलायें भइया रे! 38

आज कौन-सी औषधी लाओगे हनुमान
सच के वाण लगा है छल का, सब घबरायें भइया रे! 39

रुधिर गाड़ भरि-भरि जमै ऊपर धूरि उड़ाय
हँसती बस्ती में जेहादी जब भी आयें भइया रे! 40

एक न एकहिं देखहीं जहँ-जहँ करत पुकार
बम की दहशत ऐसी फैली सब चिल्लायें भइया रे! 41

खाहिं निशाचर दिवस निशि जनता को रख गोद
इसे ‘सुराज’ आज मनमोहन विहँस बतायें भइया रे! 42

ते नर सूर कहावहीं अरे समझि मतिमंद
दीन और निर्बल का जो बल बन दिखलायें भइया रे! 43

जिनने जन-शोषण किया दिये चराचर झारि
वही विदेशी अब सबके मन बेहद भायें भइया रे! 44

ये जन पालईं तासुहित हम सब डालें वोट
लेकिन नेता बैठ सदन में जन को खायें भइया रे! 45

रावण-सभा सशंक सब देख महारस भंग
अखबारों में ऐसे सच पर नजर न आयें भइया रे! 46

आज पापियों के हृदय चिन्ता सोच न त्रास
ये जेहादी पल में जन के शीश उड़ायें भइया रे! 47

‘नारि पाइ घर जाइये समझो हुआ न ‘रेप’
थानेदार नारि-परिजन को अब समझायें भइया रे! 48

बांधें वननिधि नीरनीधि जलधि सिन्धु वारीश
नेता हमको विश्वबैंक का दास बनायें भइया रे! 49

खल छाती पर पैर रख चढ़ि-चढ़ि पारहिं जाहिं
‘पुल’ जैसे भावों को लेकर जब हम आयें भइया रे! 50

आज कहो नल-नील से रचें प्रेम का सेतु
सागर मद में चूर दूर तक फन फैलायें भइया रे! 51

सत्ता छोड़ो राम कहि अहित न करौ हमार
जन-जन उनको गद्दी देकर अब चिल्लायें भइया रे! 52

कलि-मल ग्रासे धर्म सब लुप्त भये सदग्रन्थ
पापीजन आतंकवाद को धर्म बतायें भइया रे! 53

भये लोग सब मोह-वश लोभ ग्रसे शुभ पन्थ
जो वर्जित हैं काम वही अब पूजे जायें भइया रे! 54

अशुभ वेश, भूषण धरें मछामच्छ जे खांहिं
अपने को वे संत, अहिंसक आज बतायें भइया रे! 55

मान मोह मारादि मद व्यापि रहे ब्रह्माण्ड
साधु-संत भी गनरों के सँग करें सभायें भइया रे! 56

बारि मथे घृत होत बरु, सिकता ते बरु तेल
ऐसे चमत्कार कर ढोंगी ठगी बढ़ायें भइया रे! 57

श्री-मद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि
नेता जितने भी चुन-चुन कर संसद जायें भइया रे! 58

व्यापि रहे ब्रह्मांड में माया के विद्रूप
दम्भ-कपट-पाखण्ड सभी के मन मुस्कायें भइया रे! 59

सोइ-सोइ भाव दिखाबईं आपुन होय न जोइ
नेता मगरमच्छ सम आँसू आज बहायें भइया रे! 60

काम-क्रोध-मद-लोभ रत, नारी पर आसक्त
सन्यासी ऐसे ही जग में आज कहायें भइया रे! 61

फल की खातिर पेड़ को काटि करें अपराध
अपने इस कुकर्म पर नेता कब शरमायें भइया रे! 62

सूधे-टेडे़ सम-विषम सब हों बारहबाट
अमरीका सँग झूम-झूम जो मौज उड़ायें भइया रे! 63

मिली आँख कब आँधरे, बाँझ पूत कब पाय
मंदिर-मस्जिद चाहे जितना शीश नवायें भइया रे! 64

मांगि मधुकरी खात सब, सोवत गोड़ पसार
लोग आज परजीवीपन को श्रेष्ठ बतायें भइया रे! 65

बेंत फूल नहिं देत है सींचो बारम्बार
दुष्ट लोग करुणामय होकर कब नरमायें भइया रे! 66

समरथ पापी बैर कर मत ले आफत मोल
हर पापी को थाने वाले संग बिठायें भइया रे! 67

नगर, नारि, भोजन, सचिव, सेवक, सखा, अगार
बिन दौलत अब नम्र रूप ये कब दिखलायें भइया रे! 68

तुलसी पहने जो वसन उन्हें उतारै नारि
फैशन-शो में देख नर्तकी सब ललचायें भइया रे! 69

सुधा साधु सुरतरु सुमन सुफल सुहावनि बात
सच्चे ईश्वर-भक्त आजकल नज़र न आयें भइया रे! 70

हरौ धरौ धन या गड़ौ लौटि न आबै हाथ
धन के लोभी और लालची दुःख ही पायें भइया रे! 71

तुलसी चाहत साधु बनि अभिनंदन सम्मान
इसीलिए कलियुग में सब ठग जटा रखायें भइया रे! 72

तुलसी ‘होरी’ खेत में गाड़े बढ़ौ अनाज
फसल पकी तो सूदखोर सब लूटन आयें भइया रे! 73

तुलसी असमय के सखा धीरज-धर्म-विवेक
पर कलियुग में लोगों को ये बात न भायें भइया रे! 74

लाभ समय को पालिबौ, हानि समय की चूक
यही सोच पश्चिम के गीदड़ दौड़ लगायें भइया रे! 75

अंक गये कछु हाथ नहिं, अंक रहे दस दून
पापी अबला नारी को पल-पल समझायें भइया रे! 76

तुलसी अलखहि का लखें, कहा सगुन सों सिद्ध
जप-तप-दर्शन बुरे समय में काम न आयें भइया रे! 77

केवल कुर्सी-सिद्धि को रामभक्त का वेश
अब बगुले नेता बन जायें, गद्दी पायें भइया रे! 78

तुलसी अपने देश में जन-रोटी पर चोट
अफसर, नेता या पूंजीपाति माल उड़ायें भइया रे! 79

द्वार दूसरे दीन बनि और पसारे हाथ
विश्वबैंक से लेन उधारी नेता जायें भइया रे! 80

जल भी बैरी मीन का घातक इसका संग
यही सोचकर आज मछलियाँ मन अँकुलायें भइया रे! 81

नेता रूखे निबल-रस, चिकने सबल सनेह
इनकी खातिर गढ़नी होंगी अग्नि-ऋचाएं भइया रे! 82

मूँड़ मुड़ाकर-भाँड़ बन, वे दें अब घर त्याग
जिन्हें बिना श्रम रोट भीख के आज सुहायें भइया रे! 83

अन्त फजीहत होय अति, हो गणिका आसक्त
नगरवधू पर घर-धन-दौलत लोग लुटायें भइया रे! 84

स्वार्थपूर्ति के हेतु ही रीझें और रिझाइँ
लोग आजकल मतलब से सम्बन्ध बनायें भइया रे! 85

खर-दूषन-मारीच-से खल दल-बल के साथ
सज्जन को लखि करें ठिठोली, शोर मचायें भइया रे! 86

तुलसी बस हर पल लगै भली चोर को रात
अंधियारे के बीच निशाचर सैंध लगायें भइया रे! 87

कलियुग में जल-अन्न भी महँगाई के संग
इनका कर व्यापार लोग अब दाम बढ़ायें भइया रे! 88

ज्यों गोबर बरसात के ऐसे मन से लोग
पर अपने को कह ‘महान’ हुलसें-इतरायें भइया रे! 89

उदासीन सबसों सरल तुलसी सहज सुभाउ
यही सोच खल से टकराने सब घबरायें भइया रे! 90

गल कठमाला डालकर, पहन गेरुआ वस्त्र
रस-रागी, नारी-तन-भोगी योग सिखायें भइया रे! 91

बाधक सबसे सब भये साधक दिखे न कोय
नाटक कोरी हमदर्दी का लोग दिखायें भइया रे! 92

जीवन में संघर्ष जब, हर कोई बेचैन
काम न आयें कामकलाएँ, प्रेम-कथायें भइया रे! 93

लुप्त हुई करुणा-दया केवल दण्ड-विधान
नौकरशाह आज जनता को मारें-खायें भइया रे! 94

चोर चतुर बटमार नट प्रभु-प्रिय भँडुआ भंड
पुरस्कार की लिस्ट बने तो ये ही छायें भइया रे! 95

वक-भक्षण मोती रखें अब सब हंस बिडारि
कबूतरों को छोड़ बाज को लोग चुगायें भइया रे! 96

रति खतरे में जब पड़ी घायल हर शृंगार
ऐसे में हम लिखें तेवरी, ग़ज़ल न भायें भइया रे! 97

कोटि भाव समझावऊ मन न लेइ विश्राम
है शोषण का ताप हृदय में चैन न पायें भइया रे! 98

तुलसी कैसा दौर ये, कैसा जग का मान
हंस नहीं अब बगुले कलियुग विद्व कहायें भइया रे! 99

तुलसी पावस के समय धारि कोकिला मौन
राजनीति के सारे दादुर अब टर्रायें भइया रे! 100

कायर कूर कपूत कलि घर-घर इनकी बाढ़
मात-पिता बहिना-भाई पर ये गुर्रायें भइया रे! 101

प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम-राम जपि राम
राजनीति की अब दुकानें लोग चलायें भइया रे! 102

ऐसी अपनी तेवरी हर तेवर दो छंद
जिनमें तुलसी की दोहावलि की छवि पायें भइया रे! 103

खल उपकार विकार फल तुलसी जान जहान
तेवरियां लिख हम जनता को अब समझायें भइया रे! 104
—————————————————-
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
Mo.-9634551630

Language: Hindi
446 Views
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