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9 Mar 2021 · 6 min read

रंग पर्व विशेषांक, कला कुन्ज भारती पत्रिका समीक्षा

समीक्षा- रंग पर्व विशेषांक
कला कुन्ज भारती पत्रिका

कला और साहित्य को समर्पित ,”कला कुंज भारती “पत्रिका मार्च 2021 अंक का विशेषांक रंग पर्व आज प्राप्त हुआ। मुख पृष्ठ पर सुंदर भगवान सदाशिव एवं ब्रज की होली खेलते कान्हा का चित्रण देखकर मन प्रसन्न हो गया।मन में कौतुहल था,अतः तुरंत पठन -पाठन में संलग्न हो गया। संपादकीय लेखन में पद्म कांत शर्मा प्रभात जी अनुकरणीय हैं। ऋतुराज वसंत का आगमन हो चुका है, और ,उसकी अगवानी में रंगों के उत्सव से भरपूर यह रंग पर्व विशेषांक पाठकों को समर्पित किया गया है ,जो अत्यंत सराहनीय है।लेखन का प्रारम्भ डॉ अशोक पांडे द्वारा लिखित लेख “जहां कुंभ वहां हनुमान जी विराजमान होते हैं “तर्क एवं आध्यात्म का समुच्चय है। वे लिखते हैं –

संत समागम का मतलब है हरि कथा का आयोजन, सत्संग, पूजा पाठ और भगवत भजन। तीर्थ क्षेत्रों में तो विशेष रूप से हनुमान जी का निवास होता है। कुंभ का आयोजन हो और वहां हनुमान जी ना पहुंचे ऐसा संभव ही नहीं है।
एक अप्रैल से हरिद्वार में कुंभ महापर्व का उत्सव शुभारंभ हो रहा है। यहां से अपनी बात प्रारंभ कर वे विभिन्न स्थानों पर स्थित हनुमान जी के मंदिरों पर आ जाते हैं ,और ,हरिद्वार उज्जैन ,इंदौर, ब्रजभूमि इत्यादि अन्य स्थानों में हनुमान जी की उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

लेखिका उर्मिला देवी ‘ उर्मी’ ने अपने लेख शीर्षक “फागुन की शोभा निरखि धन्य हो रहे नैन” में लिखा है ,कि,

होली भारतवर्ष की महान सभ्यता और संस्कृति का परिचायक वह विशेष पर्व है जो संपूर्ण विश्व को विविध रंगों के माध्यम से एकता, समन्वय और सद्भावना का संदेश देता है । संपादक महोदय ने लेखिका के इस कथन को विशेष टिप्पणी के रूप में लिखा है ।

“होली को मनाना और शत्रुता को मिटाना अत्यंत सुखद अनुभव होता है। वास्तव में इसका कारण यह है कि होली के पहले बसंत के आगमन के साथ ही धरती का रूप मनोहारी हो जाता है, प्रकृति खिल उठती है। फूलों के रंग और खुशबू से वातावरण मतवाला हो जाता है,”

लेखिका पूनम नेगी अपने लेख के शीर्षक “विश्व का सांस्कृतिक गौरव कुंभ पर्व” पर लिखते हुए कुंभ की महत्ता और कुंभ की व्याख्या करते हुए कहती हैं।जो अत्यंत सार्थक है।

” सनातन धर्म में कुंभ यानी कलश को पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। हमारे मनीषियों ने मानव जीवन का परम लक्ष्य पूर्णता को माना है।”

इसके साथ ही कुंभ पर्व से जुड़ी हुई धार्मिक कथाओं का वर्णन है जैसे समुद्र मंथन ।नदियों के महत्व पर उन्होंने प्रकाश डाला है ।हमारे पूर्वजों की धरोहर है ।

लेखक कृष्ण कुमार यादव जी ने शीर्षक “होली :वैर भाव द्वेष दूर करने का उत्सव” में अनेक वृतांतों का वर्णन करते हुए नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरण्यकश्यप की कथा, भविष्य पुराण में वर्णित राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी का वर्णन आता है।
उत्तर भारत में होलिका दहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रूप में मनाया जाता है। तो ,दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल कर भस्म कर दिया था ,और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था, तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगवर्षा की थी।

लेखक का कथन है कि बरसाने की लट्ठमार होली के बिना होली की रंगत अधूरी रह जाएगी। बरसाना में हर साल फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन होने वाले लट्ठमार होली देखने व राधा रानी के दर्शनों की एक झलक पाने के लिए यह बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक देश विदेश से खींचे चले आते हैं।
लेखक के अनुसार बनारस की होली का भी अपना अलग अंदाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है ,यह होली को रंग भरी एकादशी के रूप में मनाते हैं।
लेखक के अनुसार बरेली शहर में होली के रंगों के उत्सव के बीच भगवान राम के आदर्श भी हैं ,और यहां फाल्गुन में बमनपुरी की रामलीला होती आ रही है।

लेखक कहता है”

नए वस्त्र, नया सिंगार और लजीज पकवानों के बीच होली पर्व मनाने का एक वैज्ञानिक कारण भी गिनाया जाता है कि यह पर्व के बहाने समाज एवं व्यक्तियों के अंदर से कुप्रवृत्तियों एवं गंदगी को बाहर निकालने का माध्यम है। होली पर खेले गए रंग गंदगी के नहीं बल्कि इस विचार के प्रतीक हैं किन रंगों से धुलने के साथ-साथ व्यक्ति अपने राग देश की धो दे।”

डॉक्टर अन्नपूर्णा शुक्ला लेखिका चित्रकला परिशिष्ट में

“रेखाओं के नाद तत्व, ललित कलाओं की आत्मा है।”
शीर्षक से लिखती है ,

“रेखा अपनी अद्भुत शक्ति और अनंत विस्तार के कारण शब्द आकारों में ऐसी समाहित हुई कि शब्द ब्रह्म के रूप में परिवर्तित हो गए ।नृत्य में ऐसी समायी कि शंकर के तांडव में लयात्मकता के ऐसे शिखर पर पहुंची कि पार्वती अपने लास्य नृत्य से उन क्रोध मयी और तीव्र गत्यात्मक रेखाओं को समेटना पड़ा ।”

लेखिका का कहना है -“रेखाएं आदिकाल से ही कलाओं की सहचरी रही हैं ,क्योंकि रेखाएं अनंत संभावनाओं की जननी है ।कलायें जब जब अपनी लय और ताल में रही हैं। तब-तब रेखाओं की सुर साधना सौंदर्य साधना में लीन रहीं हैं। रेखाओं का लास्य ही कलाओं का श्रृंगार हैं।”

डॉक्टर करुणा शंकर दुबे
लोक साहित्य परिशिष्ट में

फाग :अद्भुत गायन कला है

, शीर्षक से लिखते हैं,
” फाग गायन की परंपरा अति प्राचीन है आदि कालीन कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक फाग की परंपरा है ।कबीर तथा अन्य संत कवियों के निर्गुन भी फाग शैली में गाए जाते रहे हैं। बनारस में तो आज भी गाए जाते हैं। सूर और तुलसी के अनेक पद फाग शैली में नए शब्दों के साथ गाकर श्रोताओं को भावविभोर किया जाता है ।”

लेखक का कथन है- हिंदी काव्य धारा अपनी विविध विधाओं विशेषताओं के कारण अति समृद्ध रही है। इस धारा में लोक जीवन तथा उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति प्रवाहित होती है ।लोक रीति , परंपरा, लोकाचार, लोक संस्कार लोकगीतों के माध्यम से ही साहित्य में आये हैं।

फाग नाम से ही प्रतीत होता है इस शैली का संबंध फागुन से है ।फागुन का महीना ऋतुराज बसंत से है। उल्लास उत्साह उमंग से भरे ऋतु में प्रकृतिभी अपनी संपूर्ण सुषमा से सजती है।

संगीत परिशिष्ट में संदीप जोशी “संगीत को समर्पित गिरजा देवी”
शीर्षक से लिखते हैं-
गिरजा देवी लोक गायन की अद्भुत कला साधिका थी। शास्त्रीय तथा लोक गायन को नए आयाम देने वाली तथा ठुमरी की रानी कहलाने वाली गिरजा देवी का मानना था कि संगीत के लिए एक जीवन काफी नहीं होता।

लेखक ने विशेष रुप से लिखा है- “गिरजा देवी को ठुमरी गायन की रानी माना गया है ।महानता को किसी एक शैली में बांधना संभव नहीं होता ।इसलिए उन्होंने लोक गायन की कजरी, चैती व होली को शास्त्रीयता का सुंदर जामा पहनाया। सुनने वालों को उनकी जमीन से जोड़ने का अद्भुत काम किया। अप्पाजी के नाम से जानी जाने वाली गिरजा देवी ने कई सर्वकालिक बंदिंशे रची।”

धरोहर परिशिष्ट में निरंकार सिंह – “अद्भुत ज्ञानपीठ है काशी का जंगम बाड़ी मठ “शीर्षक से लिखते हैं। काशी के जंगम बाड़ी मठ का प्राचीन संस्कृत की भाषा और साहित्य संवर्धन और उन्नयन में बड़ा योगदान है।

विशेष रुप से लेखक वर्णन करता है

“संस्कृत भाषा और दूसरी भाषाओं को ज्ञान का माध्यम बनाते हुए तकनीकी का समावेश भी मठ कर रहा है ।पुस्तक प्रकाशन योजना के अंतर्गत मटकी दो इकाइयां हैं -एक है शिव भारत भवन और दूसरी शिव आरती शोध प्रतिष्ठान ।इन इकाइयों द्वारा संस्कृत और आगम पर भी शोध की गई सामग्री का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशन किया जाता है।”

यह लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लेखिका रचना शर्मा “होली तो उल्लास और उमंग का पर्व है “शीर्षक से लिखती हैं,
होली का अनोखा पन देश के कई हिस्सों की होली में देखा जा सकता है। बंगाल में कृष्ण को झूला झूला कर दोल यात्रा का प्रचलन है, तो अवध में कृष्ण नहीं बल्कि रघुवीरा होली खेलते हैं ।तीनो लोक में न्यारी काशी के तो कहने ही क्या? यहाँ रंग से ज्यादा मसान और भस्म की होली प्रसिद्ध है।

इस प्रकार रंग पर्व पर प्रकाशित कला कुंज भारती पत्रिका एक अनूठा गुलदस्ता है जिसमें साहित्यिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक सांगीतिक लेखन विद्यमान है। संपादक पद्म कान्त शर्मा ‘प्रभात ‘इस अनूठी पत्रिका को पाठकों के हाथ में देने के लिए बधाई के पात्र हैं। साथ ही मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ है कि मैं समीक्षा के तौर पर दो शब्द लिख सकूँ।

समीक्षा-डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, ‘प्रेम’
वरिष्ठ परामर्श दाता, प्रभारी रक्त कोष
जिला चिकित्सालय सीतापुर।
मोब. -9450022526
दिनांक
7.3.2021

Language: Hindi
Tag: लेख
1 Like · 4 Comments · 351 Views
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