रंगों का यह पर्व अनूठा
एक गीत
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रंगों का यह पर्व अनूठा,रॅग में सब रॅग जाते।
द्वेष द्वंद पाखंड छोड़कर,आपस में मिल जाते।।
गिले और शिकवे की सूची,भस्म यहीं हो जाती।
और होलिका भी होली में, फिर से गौरव पाती।।
जो भी रूठे थे,होली में,सबको गले लगाते।
रंगों का यह पर्व अनूठा,रॅग में सब रॅग जाते।।
प्रेम लुटाकर,गले लगाकर,करते सब अभिनन्दन।
झुक झुक कर करते अभिवादन,गाकर करते वंदन।।
संबंधों के पुष्प खिलाकर, हम -जोली बन जाते।
रंगों का यह पर्व अनूठा,रॅग में सब रॅग जाते।।
फगुआ की जब भीनी खुशबू,हिया उतर जाती है,
सहज सामने पाकर उनको,और भड़क जाती है।
तब मिलकर दोनों रिश्तों को,जामें नव पहनाते।
रंगों का यह पर्व अनूठा, रॅग में सब रॅग जाते।।
पीत चुनरिया पहन धरा भी, दुल्हन सी सज जाती।
और कोकिला फुदक-फुदक कर, गीत मधुर अब गाती।।
फूलों के अनुपम मौसम में,भॅवरे खुल मॅडराते।
रंगों का यह पर्व अनूठा,रॅग में सब रॅग जाते।।
??अटल मुरादाबादी✍️?