ये होली भी क्या होली है
महंगे हो गये सर समान, और महंगी हो गयी बोली है।
फाग वाग का पता नहीं है ,दिखती नही रंगोली है।
रंग फीका पड़ गया है अच्छे खासे रिश्तों का भी,
चारो तरफ सन्नाटा है, ये होली भी क्या होली है।
होली मिलन बस नाम का रहा, मेल जोल अब बन्द हुआ ।
कुछ दोष कोरोना का भी है ,जो मेल जोल पाबन्द हुआ ।
कबीरा को याद करने वाली विलुप्त हो रही टोली है।
चारो तरफ सन्नाटा है, ये होली भी क्या होली है।
रंग अबीर से सराबोर हो ,घूमते थे हो कर मतवारे।
कितना अच्छा लगता था ,सदा आनन्द रहे एहि द्वारे।
सौहार्द रूपी धागे में अब असामाजिकता पिरोली है।
चारो तरफ सन्नाटा है, ये होली भी क्या होली है।
भौजी के दर पर जाकर ,हम खूब कबीरा गाते थे।
शाम को अबीर लगाकर, अपनों को गले लगाते थे।
कौन बताए अब गांवों में ,कौन सी हवा डोली है।
चारो तरफ सन्नाटा है, ये होली भी क्या होली है।
– सिद्धार्थ पाण्डेय