ये मेरा मन
कविता…..रोला छंद में
………….कविता…”ये मेरा मन”…
सावन सरीखा मन,प्यार बरसाए जाए।
धरती यौवन पर,घना है ये ललचाए।
बूँद-बूँद मद भरे,हिय मस्ती ले समाए।
पागल हो प्रीत में,दर्द आँसू-सा छाए।
मन फूलों सम कभी,प्रीतम को लुभाता है।
ख़ुशबू बिखेर मूर्ख,हृदय में बस जाता है।
कभी दीपक बनता,रोशनी फैलाता है।
कभी चाँद की तरह,चाँदनी दे जाता है।
मन कभी वृक्ष बने,छाया लिए इतराए।
थका हारा पंथी, सानिध्य है बिखराए।
मन कभी प्रेमी हो,चकोर सम बना जाए।
एकटक देखे चाँद,आशिक मूर्ख कहलाए।
मन कभी मृग सम बन,कस्तूरी गंध में रे।
दौड़े सच न जान,मद हद के बंध में रे।
मन कभी लट्टू हो,प्रेम उजाला है भरे।
लट्टू की तरह ही,तम मन का है ये हरे।
मन कभी गंगा बन,निर्मल नमी देता है।
मन कभी अंबर को,प्यारी जमीं देता है।
मन कभी काशी-सा,धर्म शिक्षा देता है।
मन कभी आँगन में,ख़ुशी बिखेर देता है।
मन कभी पतझड़ हो,रूखा बन जाए घना।
मन कभी बीमारी, से चिल्लाए है ठना।
मन कभी अमृत बने,सुख सिखाए है तना।
मन कभी सूर्य बने,रोशनी दे अधिक जना।
मन कभी मोती-सा,चमके हृदय को देखे।
मन कभी हँसता है,हृदय ग़म को है सेखे।
मन कभी टहनी-सा,प्यार पुष्प जने लेखे।
मन कभी बादल-सा,प्रेम हिलोर ले चहके।
मन कभी शीतल हो,छाया देता अनुपमा।
उर्वशी-सा चंचल,काम भावना दे थमा
मन कभी मेनक बन,विश्वामित्र को घुमा।
तप तोड़ देता है,इश्क़ का बांधता समा।
मन कभी पागल हो,नर-कुंजर सरिस धोखा।
मन कभी बाज तुल्य,चूके नहीं है मौका।
मन कभी रावण बन,सीता को है उठाता।
मन कभी स्वर्ण हिरण,बनके ये है लुभाता।
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राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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