‘याद भी;नीरज भी’
“यादें भी ;’नीरज’ भी”
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“कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे—–” ये गीत हमें सिनेमा हाल तक खींच कर ले गया।फिल्म थी “नई उमर की नई फ़सल “।फिल्म बेरोज़गार लड़कों पर थी।यह फिल्म हमारी मित्र मंडली ने दो तीन बार देखी पर मुख्य कारण था ये गीत “कारवाँ गुज़र गया—-“।जिसको सुनने पर आज भी भावुक हो जाते हैं।ये तो बहुत बाद में पता चला कि यह गीत गोपाल दास ‘नीरज’ ने लिखा।
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कालेज में प्रवेश के बाद कुछ कविता करने लगे तो एक दिन हमारे परम मित्र ‘अशोक ‘अक्स’ ने बुलाया और हाथ पकड़ कर ले गये काव्य गोष्ठी में।कहाँ ‘नीरज’ के गीत और कहाँ हमारी नौसिखिया कहाँ हमारी आधुनिक कविता की परत चढ़ाये अतुकांत कविता।हमारा साहित्यिक सफर शुरु हुआ पर नायक थे ‘नीरज’,बच्चन,भवानी दादा,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,अज्ञेय आदि।इनमें से कुछ से रुबरु हुये तो कुछ को दूरदर्शन पर सुना।साहित्य से नाता जुड़ चुका था।
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यह लगभग १९७३-१९७४ की गर्मियों की बात जब गुरुग्राम के लोक सम्पर्क विभाग ने घोषणा की कि शहर में विशाल कवि सम्मेलन होने जा रहा है।तब हरियाणा के मुख्य मंत्री थे ‘बनारसी दास गुप्त’;वे बहुत साहित्य प्रेमी थे और बाद में हरियाणा प्रादेशिक हिंदी सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे।हम सारे मित्र बड़े उत्साह से चले ‘कमला नेहरु पार्क’ कवि सम्मेलन ।वह पार्क था पर उसमें एक ओपन थियेटर था जहाँ विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था।सफेद चाँदनी बिछी हुई थी;स्टेज पर बड़े बड़े कवि विराजमान थे;मुख्यमंत्री मुख्य अतिथि भी थे।मंच पर विराजमान थे,भवानी प्रसाद मिश्र,गोपालदास’नीरज’,अशोक चक्रधर,गोपाल व्यास,काका हाथरसी आदि बहुत से कवि थे।हमारी मित्र मंडली को जगह अंतिम पंक्ति में मिली।धीरे धीरे आगे बड़ते हुये हम मंच के ठीक सामने जा पहुँचे ।हम वहाँ पहुँचे ही थे कि ‘नीरज’ जी के काव्यपाठ की घोषणा हुई।’नीरज’जी ने अपनी सुमधुर धीर गंभीर स्वरलहरी में ‘कारवाँ गुज़र गया —–‘सुनाना शुरु किया तो समय जैसे ठहर सा गया।हम मंत्र मुग्ध सुनते रह गये।यह गीत फिल्म के गीत से एकदम अलग था।लोग ‘वंस मोर’ चिल्लाने लगे।पर मंच पर कवि अधिक थे।समय सीमित था।मुख्यमंत्री के जाते ही मंच भी जैसे ख़ाली हो गया।
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मंच पर दो चार कवि थे।हम भी धूम्रपान करते थे तो मंच के पीछे तलब शांत करने पहुँचे तो कवि नीरज जी पाँच सौ एक छाप बीड़ी पी रहे थे।मंच पर ‘भवानी दादा’ सतपुड़ा के घने जंगल सुना रहे थे।तभी नीरज जी आये और जैसे ही भवानी जी ने अपनी कविता समाप्त की ।सारा कवि सम्मेलन कवियों ने खड़े हो कर किया तो अंत में नीरज जी मंच पर बैठे ।रात के दो बज गये थे श्रोताओं में हमारी मित्र मंडली के अलावा कुल मिला कर तीस चालीस ही शेष बचे थे।उन्होंने अपनी तान छेड़ी और कविता शुरु की ‘अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई;मेरा घर छोड़ कर पुर शहर में बरसात हुई।’गीत और कविता की इस बौछार ने सुबह तीन बजे तक सारोबार किया।मन ने कविता के इस स्नान को एसा आत्मसात किया कि उसकी उर्वरक शक्ति अब तक हमारे अंदर बह रही है।।अब भी जब गाहे बेगाहे हम मित्र बैठते हैं तो उपरोक्त कवि सम्मेलन को बेसाख़्ता याद कर लेते हैं।
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इसके बाद भी प्रतिवर्ष हम गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हम लाल क़िला-नई दिल्ली में अवश्य जाते थे।कवि तो बहुत होते थे और कहते भी अच्छा थे पर उनका असर कभी टैंट से बाहर नहीं निकल पाया जहाँ आयोजन होता था।जो बाहर भी आता था और कई दिनों तक जो दिमाग को हिला कर देता था वह थे गोपाल दास नीरज,भवानी प्रसाद मिश्र,कवि प्रदीप;संतोष आनंद,बेकल उत्साही और भी न जाने कितने नाम जो दिमाग से उतर गये हैं।पर यादगार दिन थे वो जहाँ कवि केवल मंचीय नहीं अपितु स्तरीय थे।आज कवि सम्मेलनों की तुलना यदि उन दिनों से करें तो यूँ आंकलन कर सकते हैं क्योंकि उन दिनों की गोष्ठी भी स्तरीय थी बजाय कि आज के विशाल कवि सम्मेलन से।उन्होंने बहुत सी फ़िल्मों के लिये लिखा पर फ़िल्मों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।देवानंद के साथ उनके आत्मीय संबंध थे ।प्रेम पुजारी में शोख़ियों में घोला जाय—–;राजकपूर के साथ ‘मेरा नाम जोकर’ ए भाई जरा देख के चलो—–।सबसे प्रिय संगीतकार रहे सचिनदेव बर्मन।धुनों पर गीत लिखना गवारा नहीं था इसलिये वापिस अलीगढ़ आ गये।फिर से कवि ,कविता और कवि सम्मेलन ।अंतिम समय तक वो रहे कवि,शुद्ध कवि।
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राजेश”ललित”शर्मा
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बी-९/ए;डीडीए फ्लैटस
होली चाइल्ड के पीछे
टैगोर गार्डन विस्तार
नई दिल्ली-११००२७ं