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27 Feb 2020 · 1 min read

‘यादें’

‘यादें’

सुनो!
तुम्हारी यादें
बंद दरवाज़े पर आकर
दस्तक देती हैं,
जैसे
आज भी वो मेरा
पता पूछ रही हों।
उन्हें क्या मालूम
तुम्हारे बिना
ये शहर, ये गलियाँ ,
ये घर और इसकी दीवारें
सब गुमनाम हो गए हैं।
छत से लटकते
मकड़ी के जाले
और रात के
सन्नाटे में पलटते
किताबों के ज़र्जर पन्ने
आज भी
किसी की उजड़ी
मुहब्बत का
मातम मना रहे हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)

Language: Hindi
1 Like · 1 Comment · 206 Views
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