मैं साहिलों पे सफीना लगा के लौट आया
मैं साहिलों पे सफीना लगा के लौट आया
मैं आंधियों से निगाहें मिला के लौट आया
बड़ा ही नाज़ था दुश्मन को अपनी ताक़त पर
मैं दांत उसके भी सारे हिला के लौट आया
मिले थे मुझको अचानक से एक महफ़िल में
मैं बेवफ़ा को भी शीशा दिखा के लौट आया
सभी की पीठ के पीछे वो ग़ीबतें करता
मैं उसको उसके ही मुंह पर सुना के लौट आया
उसे गुमान था ख़ामोश कर के छोड़ेगा
मैं वार उसका ही उस पर चला के लौट आया
हुई थी आग की शुरूआत पास महलों के
मैं बस्तियों में शरारे बुझा के लौट आया
वो बोलने में सभी तेज थे निराले थे
उन्हीं पे धाक मैं अपनी जमा के लौट आया
गया ज़रूर था ‘आनन्द’ लूटने के लिये
मगर कमाल है ख़ुद लुट-लुटा के लौट आया
– डॉ आनन्द किशोर