मैं कैसे स्वयं को परिभाषित करूं
बोला गुरू से शिष्य,
मेरी उलझन सुलझाइए।
अंतरंग परिचय मेरा,
मुझसे कराइये।
मैं मन हूँ या तन हूँ,
नूतन हूँ पुरातन हूँ।
मैं अपने को समझ न सका,
मैं कौन हूँ बताइये।
मैं भोगी हूँ या भोग हूँ,
योगी हूँ या योग हूँ।
मैं कैसे स्वयं को परिभाषित करूं,
मुझे समझाइये।
इस वासना के संसार में मैं भटक गया हूं,
हो गया हूँ दिशाभूल और अटक गया हूँ।
कन्टकों में उलझा जीवन,
मुझको बचाइये।
नहीं मैं इधर रहा नहीं उधर रहा,
त्रिशंकु सा अधर में लटका रहा।
इस दुसह्य स्थिति से निकलने को,
दिशा दिखाइये।
जयन्ती प्रसाद शर्मा