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1 May 2018 · 1 min read

मेहनतकश

हर शब् की तारीकी
उम्मीद के सूरज बुझा देती है
लौट आता हूँ सब्र के साथ
रात की स्याही में अपने गम
आंसुओ में ढाल बहा देता हूँ
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब
अपनी जिम्मेदारियों की गठरी
खुद उठाता हूँ यूँ की
दामन में पैबंद लाख सही
पर हाथ नहीं फैलाता हूँ
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब
दिल है खुद्दारी से लबरेज़
मेहनतकश हूँ साहब
मै मजदूर इसी दुनिया का
क्यों नकारते हो मुझे ,
मेरे रुखे मैले हाथों से
मेरे लिबास ओ तन से साहब
इसी कायनात का ज़रूरी सा
एक हिस्सा ही तो हूँ साहब
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब

2 Likes · 282 Views
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