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11 May 2017 · 1 min read

मेरी लेखनी भी सँवरने लगी है

मधुर बंसी मोहन की बजने लगी है
कली भी तो मधुबन में खिलने लगी है
सुनी राधिका ने वो बंसी की धुन तो
के सुध बुध जो उनकी बिसरने लगी है

वो पायल की रुनझुन वो धुन बांसुरी की
कि फिर रास अनुपम सी रचने लगी है

के राधा भी नाचें वो गोपी भी नाचें
के गैया भी मगन हो थिरकने लगी है

हरिक गोपियां संग में नाचें कन्हैया
वो राधा खुशी से उछलने लगी है

नहीं जाए बरनी वो खुशियां बिरज की
दया सबपे प्रभु की बरसने लगी है

किया है मिहर यूं कन्हैया ने “प्रीतम”
मेरी लेखनी भी संवरने लगी है

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