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18 Nov 2018 · 12 min read

मेरी माउण्ट आबू यात्रा

आध्यात्म कहता है कि पहले खुद को जानें, अपने आप को पहचानें। दूसरों को जानने से पहले, दूसरों में कमियां ढूंढने या दूसरे की उपलब्धियों का गुणगान करने से पहले हमें अपने अंदर झांक कर देख लेना चाहिए। इसी भावना से प्रेरित होकर मैंने भी दूसरे देश की संस्कृतियां, वहां के विचार, धरोहरें देखने से पहले अपने ही देश को देखने का निश्चय किया। देशाटन की श्रृंखला में इस बार राजस्थान के हिल स्टेशन माउंट आबू को देखने का मन हुआ। कासगंज से ही सीधे ट्रैन थी गोरखपुर अहमदाबाद एक्सप्रेस आबू रोड के लिए। आबू रोड, माउन्ट आबू जाने के लिए रेलवे स्टेशन था, यहां से हमें बस द्वारा ऊपर माउंट आबू जाना था। माउंट आबू देखने का विचार तो पिछली बार उदयपुर और नाथद्वारा यात्रा के दौरान ही मन में समा गया था। हम लोग पिछले सितम्बर जब नाथद्वारा से घूम कर लौटे तो निगाह कलेंडर पर गई। जून के ग्रीष्मावकाश से पहले कोई लम्बी छुट्टियां नहीं दिखीं। तभी सोच लिया कि इस बार जून में माउंट आबू ही जाना है और आई आर सी टी सी के रिज़र्वेशन एप्प पर जाकर ए सी 3 टीयर में कासगंज से आबू रोड तक का कन्फर्म रिज़र्वेशन लिया। 2 रात माउंट आबू में और वापसी में 2 रात अजमेर में गुजारने का प्रोग्राम तय कर लिया था इसलिए वापसी का टिकिट 2 भागों में कराया, पहला आबू रोड से अजमेर और दूसरा दो दिन बाद अजमेर से कासगंज का। इसी दौरान सरिता दीदी और अरविन्द जीजाजी से मुलाकात हुई। उन्हें टूर के बारे में बताया तो वे भी परिवार सहित तैयार हो गए। इसबार उनका रिजर्वेशन रेलवे के काउंटर से कराया क्योंकि टिकिट वेटिंग में मिल रहा था। उम्मीद थी साढ़े तीन महीने हैं अभी जाने में, कन्फर्म हो जाएगा। बड़े उल्लास लिए हमें जिसका डर था, तारीख 29 जून की निकाल दी पंडित जी ने। अब हमारे टूर पर खतरा मंडराने लगा क्योंकि धर्मपत्नी जी को शादी की तमाम तैयारियों के साथ साथ शादी पूर्व की रस्मों में भी सहभागिता करनी थी। मैंने माउंट आबू जाने का फैसला ऊपर वाले पर छोड़ दिया। पत्नी जी दोनों हाथों में लडडू चाहती थीं, माउंट आबू भी जाना था और भाई की शादी में अपनी शॉपिंग, अपने भाई की शॉपिंग से लेकर शादी की रस्मों से भी पूरी सहभागिता करनी थी। मैंने कई बार दिल पर पत्थर रख कर कहा कि टूर तो कभी भी हो सकता है , अपने भाई की शादी पूरे मनोयोग से कर लो, हर बार गोल मोल जबाब देकर बात रफा दफा कर दी गई। 20 मई से स्कूल भी बंद हो गए, 2-4 जरूरी काम निपटाने के बाद हम लोग साले साहब की शादी की शॉपिंग करने दिल्ली चले गए, कासगंज लौटे। नोयडा में श्रीमती मीनाक्षी सुकुमारन जी के ट्रू मीडिया विशेषांक के लोकार्पण में सम्मिलित हुए। शादी भी नज़दीक और टूर की तारीख भी, अन्ततः मैंने बेमन अजमेर में ठहरने का प्रोग्राम ब्रेक कर दिया और अजमेर से कासगंज का ट्रेन रिज़र्वेशन कैंसिल करा दिया। 5 बजे की ट्रेन 7 बजे स्टेशन आई। ट्रैन में दीदी जीजाजी उनके दो बच्चे और मेरे बड़े भाई की बेटी भी हमारे साथ चढ़े। इन लोगों का रिज़र्वेशन कन्फर्म नहीं हुआ, बड़ी विषम परिस्थिति पैदा हो गयी थी, सीटें दो मेरी और अर्चना की और दावेदार हो गए आठ। ए सी कंपार्टमेंट था, वरना गर्मी का ठिकाना न था, जब प्लेटफार्म पर गाड़ी का इंतज़ार कर रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी भट्टी के पास बैठे हों। इस ट्रेन में ए सी थ्री टीयर का एक ही डिब्बा रहता है इसलिए भीड़ भी ज्यादा रहती है, चार महीने पहले के वेटिंग क्लियर नहीं हुए। खैर जाना सबको था धीरे धीरे अडजस्ट होना शुरू हुए। हमारे सामने वाली सीट पर एक मुस्लिम व्यक्ति जिसकी उम्र लगभग 55 वर्ष होगी, के साथ उसके दो बेटे बैठे थे, उनकी तीनों सीटे कन्फर्म थीं। बहुत कॉपरेटिव स्वभाव के थे तीनों। पांच वक्त का नमाजी आदमी था वह। नौ बजे की नमाज तक हम लोगों के साथ बैठकर ही अपना समय बिताया उसने। नमाज के बाद खाना खाकर कुछ देर टहला फिर अपनी सीट पर जाकर लेट गया। उसके दोनों बेटे एक ही सीट पर सो गए। इस तरह लगभग जयपुर आ चुका था। उनकी एक सीट का उपयोग हम लोगों ने ही किया। जयपुर पर तीन सवारियां उतर गईं तो हम लोग सब आराम से सो गए। सफर में लोग कम ही एडजस्ट करते हैं। आदमी अपने आराम के लिए रिज़र्वेशन में पैसा खर्च करता है। देखा तो यहां तक है , पैसेंजर गाड़ी में लोग सीट देने में लड़ जाते है, वहां भी कुछ लोग जाति धर्म का पैमाना लगाते हैं, तब बराबर में जगह देते हैं। मैं यहां उनका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। इंसान के रूप में फरिश्ते ऐसे ही होते होंगे शायद। सीट भी दरवाजे से सटी हुई थी, निकल बैठ रहती ही है, कोई डस्टबिन में कूड़ा फेंकने जाता तो कोई टॉयलेट यूज़ करने। जब तक लेटने की जगह नहीं मिली तब तक नींद से भी आंख मिचौली चलती ही रही। जयपुर के बाद हम लोग निश्चिंत होकर सो गए। अजमेर आया तो टी टी साहब आ गए, बोले टिकिट दो, टिकिट देखकर सीटें अलॉट कर दीं। अब हमें आबू रोड तक कोई डिस्टर्ब नहीं कर सकता था, पैर फटकार कर सोए।
यात्रियों की चहल पहल मेरी नींद के साथ ही समाप्त हो गयी, सुबह आंख खुली तो दिन निकल आया था। ट्रैन 9 बजे आबू रोड पहुंचनी थी, लेकिन बिलम्ब से 10 बजे उतरने के बाद ऑटो पकड़कर सीधे बस स्टैंड पहुंचे। बस का टिकिट लिया और सीट पर बैठ कर राहत भरी लम्बी सांस ली। मौसम बेहद सुहाना हो चला था, जून की गर्मी का अहसास फरवरी के ऋतुराज की तरह हो गया था। बस ने रास्ता तय करना शुरू किया, सर्पिलाकार रास्ते से गुजरना बड़ा डरावना भी था रोमांचक भी। बस ऐसे लहरा के चल रही थी मानो कोई विषैली नागिन बीन के इशारों पर लहराकर नाचती है। एक ओर गहरी खाई दूसरी ओर गगनचुम्बी पहाड़ियां। कभी कभी तो दूर देखने में लगता था कि हम सीढियां सी चढ़ते जा रहे हैं। माउण्ट आबू की आबोहवा में घर बहुत दूर हो गया था, यहां सिर्फ और सिर्फ जिज्ञासा, रहस्य और रोमांच था जो अपनी ओर आकर्षित कर रहा था।
शाम को 4 बजे के लगभग होटल से बाहर निकले। गूगल मैप से पता कर लिया था कि नक्की लेक 500 मीटर की ही दूरी पर है तो निकल पड़े पैदल ही। झील का सौंदर्य अलौकिक ही था। शान्त झील देखकर मन की क्रियाएं भी शान्त हो चली थीं। काश सारी दुनियां झील के पानी की तरह शान्त हो जाए। झील का पानी शांत होकर भी बहुत कुछ कह रहा था। शांत पानी भी सैकड़ों प्रजातियों के जीव जंतुओं को पोषित कर रहा था। झील का पानी सैलानियों के कोलाहल को ध्यान पूर्वक सुन रहा था, शांत रहने का संदेश दे रहा था, परंतु शांत कौन रहता है। बच्चे बूढ़े और जवान सब के सब नौकाओं में बैठकर उस झील की एकाग्रता को भंग करने पर तुले थे। कोई चप्पू से सोती झील को जगाता, कोई पैडल वाली नाव से झील को झकझोरता, पर झील तो झील थी। गहरी नींद में सोए मनुष्य की तरह हिलती डुलती और फिर स्थिरता धारण कर लेती। झील शांत रहना चाहती थी, स्थिर रहना चाहती थी। वह चारों ओर से बाहें फैलाए पहाड़ के आगोश में आलिंगन का सुख उठाना चाहती थी। झील अपनी गहराई में लीन रहना चाहती थी। यही तो झील की प्राकृतिक सुंदरता थी, जो पर्यटकों को अपनी ओर खींचती थी। लोग झील को देखकर आनंद लेते थे और झील आंखें बंद किए अपने प्रियतम की बांहो में बेफिक्र आनंद में खोई थी।
काफी देर तक झील की सुंदरता निहारने के बाद झील के किनारे से बने टॉड रॉक को जाने वाले सीढ़ीनुमा रास्ते पर चल पड़े। ऊंचाई पर मेंढक की आकृति वाली यह चट्टान बरबस अपनी ओर खींच रही थी। झील के आस पास घूमते घामते पैरों में जान तो बाकी नहीं थी परंतु झील के आसपास के रमणीक स्थान आज ही देखना मजबूरी भी थी क्योंकि कल सुबह बस द्वारा गुरू शिखर जो राजस्थान की सर्वोच्च चोटी है, और दस अन्य स्थलों पर घूमना तय था। नीचे से ही पानी की दो बोतलें खरीद कर चढ़ाई शुरू की। रास्ते में विवेकानंद रॉक पड़ा, कहा जाता है कि विवेकानंद ने यहां रहकर कुछ समय आध्यात्म का ज्ञान अर्जित किया था। जैसे तैसे टॉड रॉक को नजदीक से निहारने की तमन्ना भी पूरी हुई। ऊपर पहुंचकर थकान तो रफूचक्कर ही हो गई । टॉड रॉक पर इतनी शीतल हवा थी कि वहां बैठकर कुछ सुकून सा मिला। शांति का संदेश देती शीतल हवा तन और मन दोनों को एकाग्र कर रही थी। पत्नी और बेटा के चेहरे खुशियां आसानी से पढ़ी जा सकती थीं। सैकड़ों की संख्या में मौजूद सैलानी टॉड रॉक की सुंदरता के साथ मंद मंद बह रही शीतल बयार में उल्लास से भरे हुए प्रतीत होते थे। यहां से नीचे माउंट आबू शहर और झील अत्यंत मनोहारी लग रहे थे। अब सूर्यास्त भी होने ही वाला था। पेट में चूहे भी कूदने लगे थे, दिमाग में अब सिर्फ खाने की बातें टिक रहीं थीं इसलिए बिना देरी किए नीचे आकर होटल की ओर चल पड़े। आधा रास्ता ही तय किया होगा कि जोरदार बारिश ने सड़क के किनारे ही बने भोजनालय में घुसने को मजबूर कर दिया खाने के लिए नहीं, बारिश में भीगने से बचने के लिए। मन बनाया था कि अपने होटल के कमरे में फ्रेश होकर वहीं के रेस्टोरेंट में खाएंगे लेकिन यहां भोजनालय वाले की राशि में बृहस्पति प्रवेश कर गयी थी शायद, बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। पूरी सड़क एक नदी में तब्दील हो चुकी थी। शाम अपने अंतिम पड़ाव की ओर थी, भूख अपने चरम बिंदु पर थी तो बारिश बंद होने की भी कोई उम्मीद भी दूर दूर तक नज़र नहीं आ रही थी लिहाजा उसी भोजनालय में मजबूरन खाना खाया। बारिश की तीव्रता इतनी ज्यादा थी भोजनालय की छत से भी पानी कई जगह से टपक रहा था। खाना खाकर काफी देर तक इंद्रदेव की गुस्सा ठंडी होने का इंतज़ार किया लेकिन आखिर में भीगते हुए ही होटल जाना पड़ा। सिर से पांव तक पानी से तरबतर थे, तुरंत कपड़े बदल कर रजाई में घुस गए।
रात आने वाली सुबह के इंतज़ार में बड़ी लंबी लगी, क्योंकि 8 नई रोमांचक जगहों पर जाना था, जो हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बने हुए थे। जल्दी होटल में ही बने रेस्टोरेंट में दाखिल हुए। एक्सप्रेस गाड़ी की रफ्तार से नाश्ता कर रोडवेज बस स्टैंड को निकल पड़े। टिकिट लेकर बस में स्थान लिया, बस निर्धारित समय निकली। सैलानियों को दिशानिर्देश करने के लिए एक गाइड भी बस में था। माउन्ट आबू दर्शन हेतु महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान कर उसने बस के ड्राइवर को इशारा किया और बस मार्केट के बाहर ही बने शंकर मठ के बाहर रुकी, गाइड का इशारा पा सारे पर्यटक उतरकर विशाल शिवलिंग को निहारने लगे। बहुत बड़ी शिवलिंग जिसकी विशेषता थी कि एक ही पत्थर की बनी हुई थी, उसमें कहीं कोई जोड़ नहीं था। शंकर मठ से सीधे माउन्ट आबू की प्रमुख पहचान बन चुके ब्रह्मकुमारी आश्रम जा रुकी। शांति के मार्ग पर चलने की राह दिखाने वाला और आत्मिक शुद्धता का प्रचार प्रसार करने वाला यह स्थान बहुत विशेष ही था। देश विदेश के लाखों लोग प्रतिवर्ष यहां शांति की खोज में आते हैं।यूनिवर्सल पीस हाल बहुत वृहताकार में निर्मित किया गया है जिसमें बैठकर हज़ारों की संख्या में लोग उपासना कर सकते हैं। चूंकि हमें आज ही सारे स्थान देखने थे, गाइड ने भी समय से बांध रखा था अतः केवल अवलोकन करना था। इसके बाद ऊंचे ऊंचे पहाड़ों के बीच बस धीरे धीरे बढ़ने लगी, बाहर का दृश्य ऐसा प्रतीत होता था जैसे हमारे साथ ही पहाड़ भी चल रहे हों। बस से बाहर झांकने पर हृदय की गति बढ़ने लगती थी इसलिए बाहर ज्यादा ध्यान न जाए गाइड मनोरंजक बातों से यात्रियों का मन भटकाने की भरपूर कोशिश कर रहा था, लेकिन जब जान जोखिम में हो तब मीठी बातें भी कहाँ अच्छी लगतीं हैं, ईश्वर का नाम लेकर खिड़की से झांक लेते कभी गाइड के चुटकले सुन कर खिलखिला लेते। डर और रोमांच का यह खेल दिलचस्प था। भयंकर मोड़ों पर जब गाड़ी मुड़ती तो कभी कभी तो लगता गाड़ी गिर ही जाएगी। पहाड़ी लोगों की जिंदगी में ये रोज के खेल हैं। जिंदगी की जद्दोजहद ने मौत से लड़ना सिखा दिया था उन्हें। रोटी के लिए आदमी खुद रोकर भी दूसरों को हंसाने का प्रयास करता है। अचानक बस रुकी, दूर पहाड़ी पर अर्बुदादेवी का मंदिर था, सभी हिन्दू यात्री थे तो चल पड़े दर्शन को। गाइड ने बताया पौराणिक परंपरा के अनुसार पार्वती के शरीर का अधर यानि होंठ इस स्थान पर गिरा था इसलिए यहां की भाषा में इसे अर्बुदा कहते हैं। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है।नौ देवी रूपों में से एक कात्यायिनी मां के रूप में देवी की पूजा अर्चना की जाती है। बहुत सी कथाएं इस शक्तिपीठ के बारे में प्रचलित हैं। सीढियां चढ़ते चढ़ते चोटी का पसीना पांव तक आ गया था लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे सीढियां द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती चली जा रहीं थीं। मां की शक्ति मिली और हम चढ़ते चले गए। बाद में गाइड ने बताया कि सीढियां 350 थीं।अधर देवी का आशीर्वाद पाकर अचलेश्वर महादेव के दर्शन किए। अचलगढ़ रियासत के अवशेष आज भी वहां मौजूद हैं। यहां मेवाड़ के राणा कुम्भा ने एक पहाड़ी पर किले का निर्माण कराया था। अचलगर में महादेव के अंगूठे को पूजा जाता है। इसे जैन तीर्थ भी कहा जाता है।
अचलेश्वर महादेव के दर्शन कर हमलोग विश्वप्रसिद्ध दिलवाड़ा के जैन मंदिर पहुंचे। स्थापत्य कला का अद्भुत प्रदर्शन था यहां। दिलवाड़ा के मंदिर में सफेद संगमरमर पर नक्काशी और कलाकृतियां बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर रही थीं। मंदिर में मोबाइल पर्स इत्यादि वर्जित था। प्रवेश द्वार पर ही आवश्यक दिशा निर्देश बताकर मंदिर के ही पुजारी अंदर ले गए। एक एक बात बारीकी से बताई गई। 1031 ई0 में पहाड़ियों के बीच बने ये मंदिर बहुत अद्भुत और अकल्पनीय हैं। इतनी सूक्ष्म कलाकारी देखकर कोई भी व्यक्ति हैरत में पड़ जाएगा। एक एक कला देख कर वहां से हटने का मन ही नहीं कर रहा था।
अगर प्राकृतिक सौंदर्य की बात की जाए तो माउन्ट आबू का सबसे रमणीक स्थान शूटिंग पॉइंट था। अचलेश्वर के बाद से ही आसमान में काले भूरे बादल अठखेलियाँ खेलने लगे थे। जैसे जैसे हमारी बस ऊंचाई तय कर रही थी, बादलों का रंग और गहरा होता जा रहा था, ऐसा लग रहा था ये बादल हमारी बस को रोकने के लिए चारों ओर से घेरने की कोशिश कर रहे हों। जी कर रहा था इन बादलों को बाहों में भर के साथ ले चलूं। शूटिंग पॉइंट पर बस रुकती उससे पहले बारिश प्रारम्भ हो चुकी थी। कुछ यात्री भीगने के डर से बस में ही रुक गए, हम लोग प्रकृति के हर आनंद को करीब से पाना चाहते थे इसलिए बारिश में ही उतर पड़े। बारिश में शूटिंग पॉइंट का मज़ा दूना हो गया था। गाइड ने बताया इस स्थान पर कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। प्रेमी-प्रेमिकाओं की पहली पसंद है यह स्थान माउंट आबू में। मौसम जब खुद हसीन हो जाए तो जवां दिलों में उथल-पुथल होना स्वाभाविक सी बात है। यहां आने वाले युगल एक यादगार तस्वीर जरूर लेते हैं, अपने हमदम के साथ। खूबसूरत पलों की मोबाइल में कैद कर हम लोग राजस्थान की सर्वोच्च चोटी गुरू शिखर की ओर बढ़े। इस समय हम समुद्र तल से 5650 फुट अर्थात 1722 मीटर ऊपर पहुंच चुके थे। भगवा विष्णु के 6वे अवतार के रूप में पूज्य गुरु दत्तात्रेय की चरण पादुकाओं को स्पर्श कर छोटे से मंदिर में दर्शन पाकर वहां की ठंडी हवाओं में सुकून की आहट को महसूस किया। यहां से नीचे की ओर देखने पर हर चीज एक खिलोने की भांति प्रतीत हो रही थी। रास्ते में चल रही बसें ऐसे दिख रहीं थीं जैसे किसी खिलौने वाली बस में चाबी भरकर छोड़ दी हो। ऊंचाई पर पहुंचना आसान होता है लेकिन वहां टिके रहना बहुत कठिन होता है, यहां आकर ये महसूस किया। शीघ्र ही हम लोग नीचे उतरने लगे। शाम होने वाली थी, सूर्यास्त का समय नजदीक था बस ने निर्धारित समय पर सन सैट पॉइंट पर छोड़ा जहां से सूर्यास्त का नज़ारा बेहद खूबसूरत होता है। वहां से पुनः नक्की झील पर आए। शाम को जलती हुई लाइटों में झील स्वयं नहाई हुई थी। शाम के 6 बज चुके थे, शरीर थकान से चूर था सोचा थोड़ा आराम कर बाजार घूमा जाए इसलिए होटल पहुंच बेड पर आराम करने लगे। थोड़ी ही देर में बाहर से झमाझम बारिश की सी आवाज आने लगी। खिड़की से बाहर झांके तो वास्तव में बहुत तेज बारिश हो रही थी। देखते देखते शाम के 8 बज गए, बाजार जाना कैंसिल कर होटल के ही रेस्टोरेंट में खाना खाकर बिस्तर में जाकर सो गए। सुबह आबू रोड रेलवे स्टेशन से अजमेर के लिए ट्रेन पकड़नी थी। प्रातः 5 बजे ही नहा-धोकर बैग सैट कर 7 बजे नाश्ते की टेबल पर थे। बस पकड़कर आबूरोड, और वहां से ट्रेन द्वारा अजमेर। अजमेर से बस द्वारा आगरा, और आगरा से बस बदलकर कासगंज, सुखद पलों की यादें लिए ।

नरेन्द्र ‘मगन’, कासगंज
9411999468

Language: Hindi
Tag: लेख
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