मेरी पहली कविता ( 13/07/1982 ) ” वक्त से “
तुम रहते हो तो मैं
आशाओं के पुल बनाने लगती हूँ
खुशियोंकी लकीरें खीचने लगती हूँ
कि शायद तुम रूको
इसी उम्मीद में दिन गुजर जाते हैं
लेकिन तुम नही रूकते
और मेरे आँसू निकल आते हैं ,
तुम्हारे जाते ही मेरे पुल
जो आशाओं के खम्भों पर टिके हैं
वो लड़खड़ा कर गिर जाते हैं
खुशियों की लकीरें
मेरे आँसूओं से मिट जाती हैं
लेकिन तुम नही रूकते ,
सोचती हूँ तुम क्यों नही
एक बार रूक कर
मेरे आँसू अपने हाथों से पोछ कर
मेरे साथ आशाओं का
कभी ना टूटने वाला पुल बनाते
खुशियोंकी कभी ना मिटने वाली
लकीरें खीचते
सिर्फ एक बार रूक कर ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 13/07/82 )