“मेरी डायरी से”
,
सुनती हो!
देखता हूँ मैं अक्सर,
तुम्हारे पास भी कुछ,
ग़म की दो-चार बोतले रखी रहती हैं,
सिरहाने पर,
हमेशा भरी हुई,
कभी दो-चार पैग बना लिया करो।
पीते क्यों नही हो?
सब भूल के,
सब भूल के जीते क्यों नही हो?
मुझे तो अब लगता है,
तुमने इन्हें ख़रीदा नही है,
इसीलिए इनकी कीमत समझते नही हो,
किसी ने दिया है तभी तो,
इतना संभालकर रखते हो।
सोचो ज़रा!
कितना बढ़िया स्टॉक है,
अलग-अलग फ्लेवर वाले,
अलग-अलग मात्रा में,
जिनमें भरी हुई हैं,
पागल करने वाले,
बदहवास करने वाले,
थोड़ा सा झुमाने वाले,
थोड़ा सा घुमाने वाले,
थोड़ा ग़मो को भुलाने वाले,
अल्कोहल है उन सब में।
चलो न दो-चार पैग बनाते हैं,
फिर साथ-साथ हम दोनों,
दो-चार कदम लड़खड़ाते हैं।
तुम मुझे संभालना,
मैं तुम्हे संभालूंगा,
लोग तो कहेंगे ही,
दोनों क्या संभालेंगे एक दूसरे को,
जब दोनों ही झूम रहे हैं तो।
पर मुझे पता है,
इन लड़खड़ाते कदमों से,
हम सीधे चलना सिख जायेंगे।
चलो न दो-चार पैग बनाते हैं,
सारे ग़मो की बोतलों को तोड़ जाते हैं,
अब चलो भी न,
दो-चार पैग बनाते हैं।
…..✍ पंकज शर्मा