मुहब्बत
मुहब्बत
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निशाँ है हमारी मुहब्बत के हिज़्र के बाद भी वहाँ
ज़िंदगी में एक बार वह मक़ाम मुड़कर तो देखो
नहीं छोड़ता है पीछा इंसान का यादों का कारवाँ
ज़िंदगी में किसी को इसमें शामिल कर तो देखो
मुहब्बत सी हो गई है अंधेरों से तुम्हे रहते हुए वहाँ
रोशन है जहाँ मन की आंखें जरा खोलकर तो देखो
भागते रहे हो जुस्तजू में जिस मुहब्बत की तुम जहाँ
आकर ‘सुधीर’ मेरे दिल में फिर से झांककर तो देखो
खुले हैं दरिचे – औ – दर जहान में तुम्हारे लिए यहाँ
ख़्वाबों में ही मेरे आकर कभी दस्तक देकर तो देखो..
— सुधीर केवलिया