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10 Oct 2018 · 1 min read

मुक्तक

मुक्तक

गुलामी गैर की करना मुहब्बत हो नहीं सकती।
ख़ुशामद यार की करना ख़िलाफ़त हो नहीं सकती।
भरम में डाल दूजे को सज़ा ख़ुद को ही दे दोगे-
किया महफ़िल में जब सजदा इबादत हो नहीं सकती।

दिखाकर हुस्न नूरानी हमें क़ातिल बनाती हो।
पिलाकर जाम अधरों से हमें शामिल बताती हो।
हुए निर्दोष परवाने फ़ना ज़ालिम अदाओं पर-
लुटाकर प्यार के जलवे हमें काबिल जताती हो।

अब नहीं तुझसे शिकायत तू रुलाने के लिए आ।
प्यार की अर्थी सजी उसको उठाने के लिए आ।
पूछ लेना फिर पता तन्हाइयों से ख़्वाहिशों का-
मौत महबूबा बनी रस्में निभाने के लिए आ।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

Language: Hindi
1 Like · 451 Views
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