मुक्तक
चलता जा राही थम नहीं, गर मंजिल को पाना है ।
पथ की बधाएँँ रोकेगी, पग से उनको दलना है ।।
काल से करले करजोरी, सिर नहीं झुकाना है ।
मन अभिलाषा रंग भरेगी, सीधे पग बढ़ना है ।।
———————————————————
हंस का भेष लिए कागा , धूनी रमाने लगे ।
सफलता की सीढ़ियो पर , अपाहिज चढ़ने लगे ।।
धर्म की बाँधे पोटली ,दर -हाट फिरने लगे ।
अब तो वेद मंत्रों को , चक्षुहीन पढ़ने लगे ।।
——————————————————-
जीवन बना झमेला राही , चार दिनों का मेला ।
बचपन से यौवन जब आया ,पंख पसारे हौशला ।।
दसो दिशाएं अनंत रंग साजे , मनचाहे तू खेला ।
परहित प्रीत न बांधी मनवां , अंत पल रहा अकेला ।।
——————————————————-
शेख जाफर खान