मित्र
[बने कोई मित्र सुदामा सा जग में नाम हो जाये,
धरा क्या स्वर्ग में भी मित्र का सम्मान हो जाये।
भुलादो द्वेष, ईर्ष्या, वैर आपस में रहो मिल कर,
मिटे जो द्वेष आपस का, सुखी संसार हो जाये।
अहम को पास आने दो न खुद मैं में ही उलझो तुम,
अहम को त्याग दे दुनिया धरा पर स्वर्ग हो जाये।
मित्र को मित्र ही मानो स्वार्थ से दूर रहने दो,
स्वार्थ जो त्याग दे दुनिया सभी फिर यार ह़ो जाये।
बनों तुम राम के जैसा भला सुग्रीव का कर दो,
भला करने की आदत से सभी यहाँ राम हो जाये।
मिटाकर द्वेष, घृणा, स्वार्थ सभी रहने लगे मिलकर,
हटे फिर बंधन सीमा का राष्ट्र सब एक हो जाये।
……..
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”