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15 Feb 2017 · 1 min read

मित्र का अनुरोध :कुछ राजनीति पर बोलो

मित्र क्या कहूँ? क्या बोलूं ?
राजनीति पर
खेल मदारी का
डमडम डमरू
भीड़ खड़ी है
विस्मय में सब
साँप बनेगा कब कपड़े का
टस के मस जो जरा हुए
तो लहू गिरेगा आँखों से
बीन बटोरीं जेबों की पूँजी
पैसे उनके कपड़े उनके
सुबह से हुई अब शाम

सब देख रहे भूखे पेट तमाशा
जादू होगा मजा आयेगा
बच्चे बूढ़े सबको एक ही आशा
कल कुछ थी आज कुछ और!
बदल रही है राजनीति-अब एक नहीं कोई नीति, न ही एक परिभाषा।
कवि-मुकेश कुमार बड़गैयाँ (कृष्णधर दिवेदी)

Language: Hindi
501 Views
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