मिटती मानवता
मिटती मानवता
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देख रहा हूँ करवट लेते
युग पर युग बदल रहे हैं ,
सभ्याचार का रक्त बहा
सीने में छूरा चुभा रहे है।
सुता हते सूत को बेचे
गौरवगाथा सुना रहे हैं,
मानवता का चीरहरण
इंसानियत दिखा रहे हैं।
नफरत हिंसा द्वेष यहाँ
बर्चस्व अपना जमा रहे है
कटू सत्य जो इस युग का
किस्तों में हमें दिखा रहे है।
नम आंखे और मक्कारी
चश्मा देखो चठा रहे हैं,
द्वेष पूर्ण जीवन जीने का
हमको जुगत बता रहे हैं।
मार्ग द्रष्टा पिता पुत्र का
बृद्धाश्रम को टघर रहा है
बीना सास बहु का चेहरा
रक्तिम हो नीखर रहा है
कटुता द्वेष लोभ लालसा
मानव हृदय लुभा रहे है,
रक्त रक्त का रक्त बहा
अपनी सत्ता बता रहे हैं।
चक्षु दृश्य जहाँ तक देखे
लोभ लोलुपता दिखा रहे
मानव ही मानव का शत्रु
मानवता को मिटा रहे हैं।
बोझिल सांसें पूछ रहीं हैं
प्रभु हमें क्या दिखा रहे है
या की सत्ता मनुज को दे
धर्म विपक्षी निभा रहे हैं।
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©® पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
ग्राम+पो. – मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण , बिहार
८४५४५५
९५६०३३५९५२