मास्टर जी
मास्टर जी……………….
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यह बात तब की है जब मैं छोटा था
मेरे मास्टर जी तब मुझे पढाते थे
कभी कोई प्रश्नोत्तर
तो कभी पुरा पाढ ही रटाते थे
कहते थे स्वाध्याय जरूरी है
नहीं रटेगा तो डंडा खायेगा
मुर्गा बनेगा अतः
रटना तेरी मजबूरी है।
तब वर्ष में दो बार
संपूर्ण पाठ समाप्त होता
तब के मास्टर मास्टर जी थे
ना कोई बड़ा ना कोई छोटा।
तब कम्प्यूटर नहीं था
पढाने को ट्यूटर नहीं
ट्यूशन भी तो नहीं था
स्कूल था , मास्टर जी थे
कौपी और किताब था
घर के सारे काम करके भी
पढने को समय बेहिसाब था।
तब शिक्षा, शिक्षा थी
ब्यवसाय नहीं,
विद्यालय थे विद्यालय
भवन कोई ब्यापार नहीं,
आज तो विद्यालय विद्यालय नहीं
कोई ब्यापारिक संस्थान हो
जैसे पैसे कमाने का कोई
सुन्दर सा स्थान हो
तब शिक्षा दान की वस्तु थी
कोई बिक्रय का सामान नहीं
विद्यालय विद्या के मंदिर थे
ब्यापार मंडल का कोई मकान नहीं।
तब गुरु शिष्य का रिश्ता
कितना पवित्र था
गुरु के प्रति शिष्य का
सम्मान भरा चरित्र था
आज गुरु शिष्य का रिश्ता
तब से कितना परे है
कारण आज इस रिश्ते के बीच
पैसों के दिवार जो खड़े है।
स़ोचता हूँ क्या कभी फिर से
ओ पुरने दिन आ पायेंगे
शिक्षा और शिक्षक को
वहीं स्थान दिला पायेंगे ????
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”