मारी कान्हा के नेह की
सिर मोर मुकुट,
तन पीत पट।
अधर मुरली,
श्याम जू सोहत विकट।
गौरोचन तिलक भाल,
उर कंज माल।
मन मोहते,
नयना विशाल।
देखि छवि मनहारी,
ग्वालिनी बेचारी।
भई चित्र लिखित सी,
सुध-बुध हारी।
भूली सुधि निज देह की,
नहीं स्मृति रही गेह की।
नहीं चेत रह्यौ बौरी भई,
मारी कान्हा के नेह की।
जयन्ती प्रसाद शर्मा