-मानव तुम कमज़ोर नहीं–आल्हा या वीर छंद
आल्हा या वीर छंद की परिभाषा एवं कविता–
आल्हा या वीर छंद
———————–वीर छंद में चार चरण होते हैं।प्रत्येक चरण में इकतीस-इकतीस मात्राएँ होती हैं।प्रत्येक चरण की यति सोलह-पन्द्रह मात्राओं पर होती है।विषम चरणों का अंत गुरू(s)या लघु-लघु(।।) या लघु-लघु-गुरू(।।S)या गुरू-लघु-लघु(S।।) से तथा सम चरण का अंत गुरू-लघु(S।) होना अतिआवश्यक है।इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है।आल्हा छंद की कविता में मुख्य रूप से वीर रस और ओज गुण होता है।कथ्य अतिशयोक्ति पूर्ण होता है जो श्रोता के मन में उत्साह, जोश,उमंग का भाव भर देता है।
आल्हा या वीर छंद की कविता
‘नारी अब अबलापन छोड़ो’
नारी अब अबलापन छोड़ो,
सबला बनकर भरो हुँकार।
जो भी देखे तुच्छ नयन से,
रणचंडी का लो अवतार।।
चारों ओर दरिंदे बैठे,
लाचारी पर करने वार।
बिजली बनके तुम टूट पड़ो,
खंडित करो धरा का भार।।
पीर पराई कौन समझता,
अपनी ही करते जयकार।
अपनी रक्षा ख़ुद करनी है,
नारी बलशाली साकार।।
शासन सत्ता मौन पड़े हैं,
बिके हुए हैं ये अख़बार।
देवी दुर्गा – सी बन जाना,
दुश्मन का करने संहार।।
श्रद्धा प्रेम प्यार की मूरत,
रिश्ते-नातों का आधार।
रक्षा इनकी करो सदा ही,
पर सहना मत अत्याचार।।
जो लोग दबाना चाहें तुमको,
रहो विरोधी हो तैयार।
फूलों बदले फूल चढ़ाना,
शूलों को शूलों का हार।।
(C) आर.एस.’प्रीतम’