मानवीय चिंतन
मानवीय चिंतन
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सोच रहा हूँ आज – अभी,
अम्बर को गले लगाऊँ मैं
गगन में हैं जितने भी तारे,
तोड़ धरा पर लाऊँ मैं।
मार्ग कठिन हो चाहे जितना,
तनिक नहीं घबराऊँ मैं,
हर दुर्गम को पार करूँ,
हर पथ को सुगम बनाऊँ मैं।
अपने हों या गैर सभी को,
हर दिन गले लगाऊँ मैं
दुश्मन चाहे दोस्त सभी पर,
प्रेम सुधा बरसाऊँ मैं।
मानव आज मानव को मारे,
क्या इनको समझाऊँ मैं,
कैसे रक्त सनी धरती पर,
मानव धर्म निभाऊँ। मैं।
लालच -लोभ से नैया इनकी,
कैसे पार लगाऊँ मैं,
कैसे फिर से इनको जग में,
एक इन्सान। बनाऊँ मैं।
सेवा – धर्म संस्कृति हमारी,
फिर से इन्हें बतलाऊँ मैं,
राम – कृष्ण के इस धरती को,
फिर से। पवित्र बनाऊँ मैं।
✍✍ पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
दिल्ली