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14 Jan 2017 · 1 min read

मानवधर्म

मेरी गलती सिर्फ इतनी थी,
परसेवा का दायित्व लिया मैने,
फल-फूल तोड़े मेरे,खुश हुए वे,
मै भी खुश हुई।
सोने का हिण्डोला डाल,
मुझे बहुत आगे पीछे धकेला,
उनको खुश देख,
अपनी नसों में खिचाव होने पर भी,
मैंने अपना सेवाधर्म निभाया।
मॆरी शाखाएं काट चुल्हे में डाल दी,
मैं तिल तिल जलती रही,
और वे रोटियां सेंक मजे से खाये,
मैं छटपटायी मगर चुप रही।
अब तो हद ही हो गई,
वो अपना अाशियाना बनाने के लिए,
मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले,
मैंने धरती का आभार प्रकट किया,
मेरी जड़ों को जो उसने छुपा लिया था।
वरना ये स्वार्थी मानव ,
मेरे अस्तित्व को मिटा देते ,
पर वो क्या जाने,
मैं हूंँ तो वे हैं।
काटो मुझे ,
मिटा दो मेरा अस्तित्व,
मेरे मिटते ही तुम्हें भी मिटना होगा,
क्योंकि धर्म तो सबके लिए है।
धर्म के बिना कोई नहीं।
सेवाधर्म सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है
इससे बढ़कर कोई नहीं
और कुछ भी नहीं
नहीं नहीं नहीं ।

Language: Hindi
402 Views
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