माटी
माटी की गाथा चलो मैं आज सुनाऊं,
माटी को ही पूजूं अब जहाँ भी जाऊं,
माटी से बने तन को उसमें मिलना है-
एक तमन्ना माटी के कभी काम आऊं।
माटी भी देखो कितने रूप बदलती है,
कभी कलश तो कभी प्रतिमा बनती है,
कद्र कहां पर लोगों को अब माटी की-
तभी कभी-कभी रौद्र रूप ये धरती है।
पल-पल पैरों से सबके ये कुचली जाती,
कभी भी मुंह से उफ्फ तक न चिल्लाती,
सहनशीलता सिखनी है तो सीखो इससे-
तभी तो माटी सबकी धरतीमाँ है कहाती।
चाहे जितने अमीर औ बलवान बन जाओ,
स्वयं से कमजोर की कभी हंसी न उड़ाओ,
मरणोपरांत एक माटी सब पे डाली जाती-
जात लेकर लड़ने वाले थोड़ी शर्म दिखाओ।
©दीप्ति शर्मा – जटनी
उड़ीसा