मां शारदे वंदना
जय मां शारदे!
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मैं करूं आराधना मां,नित्य तेरा ध्यान हो।
मैं रहूं तेरी शरण में, ना कभी अभिमान हो।
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तू दिखाए रास्ता उस रास्ते चलता रहूं।
साधनारत हो सदा मैं काव्य नव रचता रहूं।।
छंद की अनुपम ऋचा का तुम मुझे हर ज्ञान दो।
मैं करूं आराधना मां,नित्य तेरा ध्यान हो।।
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प्रार्थना स्वीकार कर ले,मातु मेरी शारदे।
काव्य सिरजन मैं करूं तो सार्थक सा सार दे।।
मैं अगर भटकूं सुपथ से पथ्य का अनुमान दो।
मैं करूं आराधना मां, नित्य तेरा ध्यान हो।
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दीप ज्योतिर्मय सजाकर मैं उतारूं आरती।
ज्ञान से रौशन हृदय कर,मातु मेरी भारती।।
जिंदगी से हर तमस को,और हर अज्ञान को।
मैं करूं आराधना मां, नित्य तेरा ध्यान हो।।
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अटल मुरादाबादी
मंच को नमन!
मां शारदे के चरणों समर्पित
विधाता छंद ?
(१)
करे मन से समर्पण जो सभी कुछ वार देती है।
शरण में जो जभी आया उसे संस्कार देती है।
लिखें जब भी शरण लेकर लिखे को सार देती है।
लगाकर कंठ से अपने सभी को प्यार देती है।।
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(२)
अहं का बीज जो बोये उसे फटकार देती है।
उड़े बनकर हवा कोई उसे वो भार देती है।।
नहीं वो रुष्ट होती है सभी को तार देती है।
भॅवर में हो अगर कश्ती उसे पतवार देती है।।
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(३)
जगत जननी वो जगदम्बे जगत उद्धार करती है।
विधा से रंक जो होते उन्हीं के अंक भरती है।
विपद में जो घिरे रहते उन्हीं के कष्ट हरती है।
करें जो मातु का चिंतन उन्हीं पर मातु मरती है।।
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मां को समर्पित
कुंडलियां छंद
मां का कर ले ध्यान तू, मां करती कल्यान।
शब्द-शब्द में भाव भर,करती है उत्थान।
करती है उत्थान,रचे नित ही नव रचना।
जगत मोह बिसराय, करो अब महज अर्चना।।
कहै अटल कविराय, छोड़ अब मद जीवन का।
मां ही करती पार,ध्यान कर ले तू मां का।
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मां शारदे को समर्पित दोहे
काव्य करूॅ प्रारंभ मां, लेकर तेरा नाम।
शब्द-शब्द में तुम बसो,भजूॅ सदा अविराम।।(१)
छंद ज्ञान कुछ है नहीं, मूढ़ मति अज्ञान।
कुछ अनुपम मैं भी लिखूॅ,दे दो मां वरदान।।(२)
शब्द-शब्द में मां भरो,कुछ अनुपम संगीत।
मैं भी कुछ ऐसा रचूॅ,बदल जाय जग रीत।।(३)
छंद गंध बनकर बहे,मेरा हर इक बोल।
धुॅधला है मन का पटल,ज्ञान चक्षु दे खोल।।(४)
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देखें शारदे के चरणों में एक रचना
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जय मां शारदे!
छंद द्विमनोरम
२१२२ २१२२ २१२२ २१२२
प्रार्थना स्वीकार कर लो,शारदे मुझको सिखा दो।
काव्य की अनुपम ऋचा से, तुम मे’रा परिचय करा दो ।
शब्द में शुचि भाव हों बस,
छंद सुंदर सौम्य हों सब।
हो सरसता औ मधुरता शारदे कुछ नव लिखा दो।
प्रार्थना——-+
मूढ अज्ञानी मनुज मैं,
काव्य की रचना न जानूं।
क्या लिखूं कैसे लिखूं मैं,
मैं इसे बिल्कुल न जानूं।।
कर्म के ही पथ चला हूं तुम मुझे सतपथ दिखा दो।
प्रार्थना——-
श्वेत वर्णा काव्य पर्णा
छंद की अधिकारिणी हो।
और वीणा वादिनी तुम,
कंठ की मृदुभाषिनी हो।।
कंठ में मेरे सहज बस,
छंद में नौ रस समा दो।
प्रार्थना स्वीकार कर लो, शारदे रास्ता दिखा दो।
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मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।
शब्द-शब्द में भाव भरो मां,छंद- गंध बन जाओ।।
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दिशा बनो मेरे छंदों की।
कथा लिखूं नव अनुबंधों की।।
मेरी जिह्वा पर बैठ तनिक,
इक नव रचना रच जाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
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मैं बोलूं जो बोल मुखर हो।
सब तुझको ही अर्पण हो।।
वाणी में नित ओज भरा हो,
हर पल तुझे समर्पण हो।।
गाऊं गान तेरा’ नित ही मैं,
कुछ ऐसा तुम कर जाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
मैं मूरख, अनजान मनुज हूं,
तुम वाणी की देवी हो।
भूले भटके,जो जन अटके,
नाव सभी की खेती हो।।
ज्ञान-पुष्प की गंध बहाकर,
रोम-रोम को महकाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मां शारदे के चरणों में समर्पित
(१)
लिख सकूं दो शब्द मैं भी, शारदे किरपा करो।
मैं निपट मूरख, अनाड़ी,ज्ञान से झोली भरो।।
रच सकूं कुछ छंद अनुपम,ताल-गति कुछ दीजिए,
भावना में हो सहजता,सिंधु से मुझको तरो।
(२)
ज्ञान का भंडार हो मां, ज्ञान की तुम दायिनी।
हंस पर आरूढ हो तुम,शंख वीणा वादिनी।।
छंद में शुचि भाव भर दे, मातु मेरी शारदे,
और लेखन ताल-मय हो, ताल की परिभाषिनी।
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घनाक्षरी छंद
शब्द-स्वर की स्वामिनी,8 वर्ण✔️
हे माता हंसवाहिनी-(ऐसे पढ़ें)
भाव में प्रवाह कर,8✔️
छंद में विराजिए।7✔️
सुमातु हे सुहासिनी
माँ अम्ब वीणावादिनी
कंठ को सुकंठ कर,8
कंठ मेंं विराजिए।7
सुप्त हुई चेतना है,8
वेगमयी वेदना है।8
अंग -अंग हैं शिथिल,8
अंग में विराजिए।7
आरती सजाऊं नित्य,8
हो न कोई नीच कृत्य,8
आओ मेरी मातु मेरे8
संग में विराजिए।7
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प्रदत्त विषय शब्द – जीभ/जिह्वा/बोलती/रसना/रसिका/रसला/वाणी मुक्तक :-
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तुम मेरी जिह्वा बसो, हे मां अंबे आन।
वाणी में मधुरस भरो,मिले नयी पहचान।।
रसना,रसिका,बोलती, में भर दो नव छंद,
दुनिया से सांझा करूं,हो जग का कल्यान।।
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सुप्रभात संग संप्रेषित है एक दोहा ?❤️?
पवन तनय हनुमान का,लीजै मुख से नाम।
सिद्ध सभी होता सहज, बनते बिगड़े काम।
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शब्दांत – ** छाया है** (चतुष्पदी के अंत में ही आना चाहिए)
चतुष्पदी
??
चहुं ओर लगे पंडालों में मां का दरबार सजाया है।
अष्ठभुजी मां दुर्गा का ही नव रूप सभी को भाया है।
हर ओर खुशी है आने की मां के स्वागत में गाने की,
सब भक्ति में रसमग्न हुए,माता का रूप ही छाया है।
?अटल मुरादाबादी?