माँ
माँ
जब होती हूँ तन्हा तो माँ बहुत याद आती है,
माँ के बगैर मुझे ये दुनिया नही भाती है।
रोती हूँ कभी दुःखो में डूबकर,
माँ की वो बचपन की चुपकारी मुझकों अपनी ओर बुलाती ही।।।
ये जग नही कभी किसी मुफलिसी में जीने वालों का।
इन अमीरों को कहाँ गरीबो की कुटिया सुहाती है।।।
माँ की हाथों की दो रोटियां मन को तृप्त कर पेट की भूख बुझाती थी।
आज सोनू वो गुज़रे हुए लम्हों को नही पकड़ पाती है।
माँ के कलेजे का टुकड़ा होकर भी बेटी को ससुराल जाना पड़ता है।
माँ अपने बच्चों से दूर होकर कभी खुलकर नही हर्षाती है।।।
अपने बच्चों के विरह में अँखियों से आँसू बहाती है।
देख बेटियों की पीड़ा को मन ही मन बहुत पछताती है।।।।।
माँ अपने लाल के लिये मुस्किलो से लड़ जाती है।
सुख में होता लाल उसका तो खुदा का शुक्रिया अदा करने मंदिर को जाती है।।।।।।।
रचनाकार
गायत्री सोनू जैन
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