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4 Jun 2019 · 1 min read

माँ

——–ग़ज़ल——

माँ के आँचल में था जब जब भी छुपाया ख़ुद को
ऐसा लगता था कि ज़न्नत में ले आया खु़द को

याद आता है मुझे जब भी वो बचपन मेरा
माँ की तस्वीर के आगे है रुलाया ख़ुद को

रत्ती भर भी नहीं कर पाया मैं ख़िदमत माँ की
बस इसी सोच में दिन रात जलाया ख़ुद को

माँ ही वो शै है जो बच्चों की खुशी की ख़ातिर
लाख ग़म सह के भी दुनियाँ में हँसाया ख़ुद को

क़र्ज़ अहसानों का मैं कैसे चुकाऊँ माँ के
जो खिला करके मुझे भूखे सुलाया ख़ुद को

भूल बैठा है नसीहत जो अपने वालिद की
वो ग़लत रास्ते पर चल के फँसाया ख़ुद को

गालियाँ देके जो माता को भगाते घर से
उसने फिर अपनी ही नज़रों से गिराया ख़ुद को

तोड़ कर माँ के तू दिल को ये समझ ले “प्रीतम”
आज कर डाला है तूने तो पराया ख़ुद को

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)
03/06/2019

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