माँ कहती थी
माँ कहती थी
देश घर है मेरा…अब
मेरे घर में आग लगी है
कैसे चुप बैठूँ …
कैसे न तन के एठुं
कुछ लोग कहतें हैं
शब्द मेरे तल्ख क्यूँ है ?
कहो तो घर में आग लगी हो तो
प्रेम गीत कैसे गया जायेगा
फूलों की खुसबू तितली की सुंदरता
पे दिल कैसे इतराएगा
तपिस ही तपिस होगी
शीतलता कहाँ से मिल पायेगी
जब मरते हों किसान खेत की आडो पे
लाशें मिलती हों पेड़ की जिंदा डारो पे
घर में बच्चे लोटते हों अंगियारों पे
हक की बात कहो तो …
डंडे परती हों पिछुआडों पे
फिर फूल कहां से झरेगा
लौह कलम के लौह डारो से
नौजवानों के हांथों में पकौड़े और अंडा हो
रोजगार के नाम पे मनलुभावन फंडा हों
विकास के नाम पे
बड़ा सा पोस्टर और सुंदर – सुंदर झंडा हो
फिर कैसे न शब्दों का दंगा हो
फ़ौजिओं के कटते सर
बेटियों की लुटती इज्जत
बूढ़े – बच्चे जब बेघर रहे
अन्न के नाम पे जुमले मिले
बोलो फिर शांति कहाँ मिलेगी
घर में लगी हो आग तो…
अमन चैन की बातें भी
कानों में पिघला शीशा जैसे हो
कोयल की मीठी बोली भी
नाग वंश के फुंकारों जैसा हो
फिर क्यूं न कलम अंगारों जैसा हो
आलीशान बंगले जब चाॅंद सितारों से रौशन हो
ग्लास में विस्की, प्लेट में काजू हो
अप्सराएं उनके आजू-बाजु हो
मजलिस-महफ़िल में रहते हों
गंदे झोपड़ियों के भूखे नागों को
नमक रोटी और लंगोटी की बातों को
कहां भला वो सुनते हैं
अपनी मस्ती में ही वो जीते हैं
हम मसख़रा उनके लिए होते हैं
अट्ठनी चोर दौड़ा कर मारे जाते हैं
हीरा चोर शान से फिर
नबाजे जाते हैं
गरीब गुरबा फिर जोर से लताडे जाते हैं
घर में आग लगी हो तो…
~ मुग्धा सिद्धार्थ
24 सित 2018