दशानन की करुण वेदना
मैं पूछता हूँ क्या प्रति वर्ष
कागजी पुतले पर कमान साधोगे,
कब तक मरे दशानन को युहीं
तुम बार – बार मारोगे।
क्रोध, कपट, ईर्ष्या, लिए जो
तेरे आगे – पीछे डोलते है
बीच राह नारी अस्मत का
बन्धन निर्बाध्य ये खोलते है
तुम अपने बीच छुपे इन रावणों को कब मारोगे
कब तक मरे दशानन को युहीं
तुम बार – बार मारोगे।
जो थे तब ब्रम्हचारी
आज बन बैठे दुराचारी,
जिन्हें माना सदाचारी
आज वहीं दिखे व्याभिचारी।
इनके इस आचरण को
आखिर कब संहारोगे?
कब तक मरे दशानन को युहीं
तुम बार बार मारोगे।
आज तुम्हारे राज्य में
सुपनखाये छा रही है,
लखन लाल के डर से सीता
अपना नाक बचा रही है।
ऐसे इन लखनों को छोड़
कब तक हमसे बैर निभाओगे?
कब तक मरे दशानन को युहीं
तुम बार – बार मारोगे।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”