मधुकर “व” मकरंद
~~ मधुकर “व” मकरंद~~
?????????
डोल रहा मधुकर पुष्पों पर,
नयन बड़े हैं कामी।
ऐसा लगता पुष्पों का वह
बहुत बड़ा अनुगामी।।
भय से कलियां देख रही हैं,
भौरे की यह लीला।
एक फूल का रहा कभी ना,
लाल फूल या पीला।।
पुष्पों का मकरंद चूस कर,
उड़ जाता निर्मोही।
कलियां कबतक फूल बनेंगी,
इसी टोह में टोही।।
अपना यूँ मकरंद लुटाकर,
फूल सभी मुर्झाते।
फिर भी प्रित में पड़ मधुकर के,
उसको गले लगाते।।
कैसा है यह प्रेम जगत का,
जो हमको उकसाता।
वशीभूत हो प्रेम समर्पण,
मिटना हमें सिखाता।।
पुष्पों से जाना है हमने,
प्रित की यह परिभाषा।
प्रेम नाम केवल देने का,
रहे नहीं अभिलाषा।।
✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन”