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11 Oct 2018 · 5 min read

मग वैद्यक परिचर्चा

मग वैद्यक परिचर्चा
: दिलीप कुमार पाठक
बाबा बाबा थे। अब स्वर्गीय केशव पाठक जी वैद्य। सामने काँसे का लोटा बाबा का याद दिला रहा है। उसपर लिखा हुआ है श्री केशव पाठक जी वैद्य को सप्रेम ! तब मैं गोह में रहता था। बाबूजी गोह थाने के एडडी गांव में पढ़ाते थे। जो हमीदनगर और तेयाप के बीच में पड़ता है। सुविधा के ख्याल से हम गोह में रहते थे। गोह बस्ती में। एक पंडित जी थे उन्हीं के मकान में। गांव जो हमारा जहानाबाद जिले में पड़ता है कखौरा। हम होली-दशहरे में जाया करते थे। एकबार बाबा को साथ लेते आये। सदा के लिए अपने साथ रहने के लिए। बाबू जी को विद्यालय के लिए एक ब्लैकबोर्ड मिला था बड़ा सा लकड़ी का, काला पेंट किया हुआ। बगल में एक लाला जी रहते थे। फ़ौज से रिटायर थे। बोर्ड लिखने में माहिर थे। ब्लैकबोर्ड को सुन्दर सा साइनबोर्ड बना दिए। आयुर्वेदिक औषधालय / श्री केशव पाठक जी वैद्य। रोगी लोग आने लगे थे। बाबा उपचार में लग गए थे। एकदिन एक हमीदनगर के एक ठठेरा आये। “वैद्य जी हैं। ” हाँ भाई हैं। कहिये क्या कष्ट है।” “बाबा जी देख ही रहे हैं। ”
वे स्वेत कुष्ठ से पीड़ित थे करीब पांच साल से। उपचार की चाहत थी, थोड़ी लाज-शरम भी थी।
“घबराइये नहीं ठीक हो जाइएगा चार-पांच महीने में। ”
“तब तो बाबा हम आपको ……………।”
उनका दवाई चलने लगा था। इसी बीच बाबा का मन गोह से भर गया था और बाबा कखौरा बापस आ गए थे।
चार महीने बाद ठठेरा महोदय दरवाजा ठकठकाए ,” वैद्य जी वैद्य जी ”
“वो तो अब ……।”
“घर गए हैं, है न। मेरा तो सबकुछ बदल गया है। सब पहले जैसा वापस आ गया है। कबतक आएंगे? उनके लिए कुछ बनाकर लाये हैं अपने हाथ से।”
क्या है भाई ? हम अचंभित थे। बाबूजी पढ़ाने गए थे। घर में माँ और हम भाई बहन थे।
अपनी गठरी नीचे रख, उसे खोल, उसमें से चमचमाता हुआ एक काँसे का लोटा
उन्होंने निकाला। जिसपर मेरे बाबा का नाम अंकित था।

स्व. बी एन मिश्रा: वैद्य सेवा भावी होते थे आजीविका का मूल साधन कुछ भी हो मेरे चाचा शिव प्रसाद मिश1930 के दशक में कोलकोता से Rmp किये थे फिर साधना औषधालय ढाका में दो साल नौकरी कर आयु दवा बनाने का प्रशिक्षण लिया। आज की न मार्केटिंग टिप्स थी न संसाधन मगर दवा कोलकोता के सेठ मंगाते थे और फायदा भी करता था।

रवीन्द्र कुमार पाठक: समृतियों के झरोखे से झांकती हुई पुरानी बातें “””उसमें से चमचमाता हुआ एक काँसे का लोटा उन्होंने निकाला। जिसपर मेरे बाबा का नाम अंकित था।””

विजय प्रकाश शर्मा: आपके इस प्रसंग ने मुझे भी अपने बाबा पंडित कमलापति वैद्य की याद दिलाई .उन्होंने भी १९२८ में ढाका मेडिकल कॉलेज से आयुर्वेद साइंस में “भिषक शिरोमणि” कीउपाधि प्राप्त की थी तथा काफी प्रसंसित हुए थे.उनका श्री कृष्णा औषधालय था जहाँ भस्म, रसादि बनाया जाता था ,अब तो बस स्मृति शेष है.

राजेन्द्र पाठक: वैद्य वृत्ति की परम्परा से जुड़े रहे हैं हम सब .मेरे दादा जी कविराज रघुनाथ पाठक शाहाबाद क्षेत्र के पुराने वैद्य थे.

विजय प्रकाश शर्मा: मग -शाकद्वीपीय परंपरा तो आदिकाल वैद्यों की ही है.अब भटक गए है -सामाजिक-आर्थिक जरूरत के अनुसार .

राजेन्द्र पाठक: ji

स्व. बी एन मिश्रा: पुरानी बातों के सिलसिले का अंत नहीं मेरी दादी बताती थी 1 आने में 1 पाई की बचत से बना यादवो के मुहल्ले में मेरे वैद्य बाबा ने शिव मंदिर बनवाया था जो आज भी शक्द्विपी यादव संबंधो पर प्रकाश डालता है सायद यही कारण यजमानो और शिष्यों का भी रहा हो ।

रविशंकर: पाठक जी का संस्मरण उनके बाबा के प्रति अतिसय लगाव तो जाहिर करता है साथ ही साथ बैद्य के प्रति उनके द्वारा आरोग्य लाभ लेने वाले का भी प्रेम का बखान करता है। पुराने ज़माने में हमारे पुर्बजो ने वैद्य परंपरा को व्यवसाय न बना जीवन पद्धति बनायीं थी जिनमे आज की व्यावसायिकता की बात नहीं थी इसी कड़ी में
जब बैद्य परंपरा की बात चलती है जो मुझे अपने नाना जी के पिता श्री कृष्ण मिश्र जी याद आ जाती है जिनके द्वारा मधुबनी जिला में आयुर्वेद के विकास में अपनी महती भूमिका रही थी। उनके द्वारा स्थापित औषाधालय आज भी उनके याद को संजोये हुए है। आज ये परम्परा विलुप्त ह्प्ती जा रही है। अब ये पारपरिक और पारिवारिक ज्ञान के दायरे से निकल सस्थागत हो चुकी है। अतः इस परंपरा को जीवित रखने हेतु अगली पीढ़ी को सही तरीको से ही आगे आना होगा और व्यावसायिक तरीको से इसे आगे भी ले जाना होगा।

मैं: बाबा स्वेत कुष्ठ में बकुची का चूर्ण चलाते थे। शिवरात्रि के समय ये फलकर तैयार होता था। तब हम दूर-दूर तक उसकी तलाश में जाते थे और बोड़े के बोड़े घर में इक्कठा करते थे। इसी तरह शिवलिंगी, रेंगनी, गुमा, मोथा, सांप का केंचुल, चूहा का भेड़ाडी सब सम्हालकर रखा जाता था।
एकबार शकूराबाद थाना का दारोग़ा स्वेत कुष्ठ से निजात पाने के बाद इनको जर्मन रीड का हारमोनियम सन्देश में दिया था। क्योंकि बाबा हारमोनियम वादन में रूचि रखते थे। जिसको मेरे बड़े चाचा जी बेच दिए थे। बहाना बनाकर कि वकील को फ़ीस देना था। जिसका अफ़सोस इन्हें बराबर रहता था।

रवीन्द्र कुमार पाठक: आयुर्वेद चिकित्सा के सामाजिक संबंधों और समकालीन परिस्थितियों पर मैं ने एक किताब लिखी है- आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न। यह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से छपी है। पहला संस्करण समाप्त हो गया है। दूसरा छप रहा है। कभी फुरसत में इसे भी देखने, आशीर्वाद देने की कृपा करें।

स्व. बी एन मिश्रा: जी अवस्य ये सुखद सुचना पा कर हर्ष हुआ मध्य प्रदेश शाशन ने पारंपरिक चिकित्सा को जिवित् रखने के लिए वैद्यों को प्रोत्साहित करती है वन औषधि के लिए समय समय पर वैद्यो को आमंत्रित करती है मेरी यही सोच नर्मदा किनारे होशंगाबाद के वरिष् समुदाय केंद्र को जरा स्वस्थ केंद्र के रूप में विकसित करने का मन है।जहाँ हेर विधि से इलाज हो किन्तु वरीयता आयुर्वेद और वन औसधी प्राकृतिक चिकित्सा किहो।

राजेन्द्र पाठक: ये वैद्य हैं, वे वैद्य हैं
और वैद्य से उत्पन्न सारे वैद्य हैं
वैद्य में से वैद्य को यदि लें निकाल
शेष कोई वैद्य ही बचता सदा.

(……. वैद्यक समाज के लोग हैं हम.)

संजय मिश्र अणु: जान कर आनंद आ गया!इसलिए की हमारे पिता जी का ममहर था”कखौरा”|आप हमारे दादी माँ के परीवार से हैं|

मैं: आप कुंड़िला के हैं क्या ?

बुद्धदेव मिश्र: Bhht acha lga khas Aaj yuba class ke log hamare purbjo ki badhgiri parmpra ko kaym rkh pate sansar ka kalyan hota jai Bhasker

निगम कुमार: APKE baba ka nam kya tha
Ham bhi jehanabad SE hi HAIN

मोनिका शास्त्री: बहुत मोहक रचना ।आप और पंडिताईन को मेरा नमस्कार। बच्चों को मेरा सनेह ।

शिशिर कुमार भक्ता भक्ता: राधे-राधे !
पहलो बैद्यों की बात कर्म और औषधी सत्य-सत्य-सत्य हुआ करता था क्योंकि उनकी चिकित्सा निःस्वार्थ और परमार्थ मे होता था ! आज डाक्टर साहेब की तरह सिर्फ धन कमाने के लिए ब्यवशाय नही !!

निलाम्बर नाथ मिश्र: में तो चिकित्सा के लिये एक शब्द नहीं।लेख में जो आन् बान शान है!

Language: Hindi
1 Like · 2 Comments · 235 Views
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