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8 Mar 2017 · 2 min read

मंत्रमुग्ध(एक श्रृंगार कविता)

* यात्रा में *

मन्त्र मुग्ध सा मन मेरा
अवलोकित उसको करता हे।
पल पल पलक झुकाता हे
शायद थोडा सा डरता हे।
भाल रिक्त अलंकरण से
पर अलंकार भी फीके हे।
बाल बात जिमि उलझे हे।
जो लगते बड़े ही नीके हे।
कृतिम कनक कंगन उसके
ज्यादा ही उसको भाते हे।
जो दोनों नैना उसके
उनको ही तकते जाते हे।
मुझे देखकर कनखी से
ली है उसने जमूहाई
हाय कयामत आगई है
जब ली हैं उसने अंगडाई
नासिका बडी ही सूतवा है
कुछ तीखे उसके किनारे है।
कांन्ति उसके नयनों की
ज्यो शुभ्रा के तारे है।
नासिक लोंग पडी ऐसे
ज्यो ओस बून्द हो फूलो पर
यो बून्दे कानों पर लटक रहे
ज्यो सद्यस्नाता झुलो पर
पिन्गलवर्नी कानो में
मोती क्या दाडिम के दाने
ज़ुल्फो की कच पर गिरती हैं
कुछ लम्बी लम्बी सी राने।
बरबस ध्यान बंटाती हे
दिल माने या न मानें।
होंठ सुशोभित हें रंग से
या रंग सुशोभित होंठो से
पतली पतली सी रेखाएं
बस अलग सभी के होठों से
कच चन्दन केसर के जैसे
बायें पर जिसके तिल काला
लगता हे नज़र बचाने को
विधि ने बिठा दिया हो रखवाला।
समद्विबाहु त्रिभुज जैसा कुछ
सजा हुआ हे भोंओं में
विषमबाहु परवलय गोल
बना हुआ हैं आँखों में।
मरमर के जैसी आँखे हैं
पर बनी हुई हैं चंचल
मूरत मन को करता हूँ
पर होती हैं फिर भी हलचल।
श्वेत केतकी के उर में
बैठा हो जैसे कोई भ्रमर
लगते हैं नयना ऐसे ही
जब होती हैं उर्ध्व नज़र।
अनावर्त हुई हे भाल खरोंच
जो छिपी हुई थी लट से
शायद खरोंच हो गई हो
कड़े बिस्तर की सिलवट से।
चिबुक चन्द्रमा चिपका हो
जैसे भूरे बादल में।
मुस्कुराहट लगती ऐसे
जिमि बहार हो शतदल में।
ओष्ठ और नाक मध्य
अवस्थित एक हल्दी घाटी
मरने और मिटने वालों की
जो डाल रही हे परिपाटी।
सहसा चमकी हे दन्तपंक्ति
जिमि चन्द्रहास हो श्रोणित में।
इतनी देर तो रही नही
कि करता शब्दों में परिणित मैं।
रंग कुंदन खुशबू चन्दन
हर मुद्रा लगती रम्भा सी।
अवलोकन से ध्यान हटाती हे
बाधाये बन कर खंबा सी।
गर्दन की तीन लकीरो पर
अब चुन्नी अंशुकडाला हैं।
हरे चाय के रंग पर जैसे
बूंटा हल्का काला हे।
छिपी हुई छोटी*****
जिमि खिली हुई कच्ची*****।
करती हे कुरते में कुंकुन्
मानो खिलत रही*******।
अंगूर पके हो जैसे तो
कुरते का रंग बड़ा प्यारा।
अंगूली में उसकी अंगूठी का
नग भी लगता हैं न्यारा।
पतले से लम्बे हाथो में
ऊँगली शब्दों सी पतली।
तिकली सी महीन कटि उसकी
करती हे जो मुझसे चुगली।
आगे बड़ पाऊं मै बस कि
यात्रा का अवसान हुआ।
उतर गया उपमेय स्वयं
असहाय हाय उपमान हुआ।

मधु गौतम
अटरू जिला बारां

Language: Hindi
279 Views
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