भावविहीन आंखें…..!!
भावशून्य आंखें…..
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रात्री के यहीं कोई
ग्यारह बजे का समय
कृष्ण पक्ष की वो
काली भयावह रात
शरीर को कपकपा
देनेवाली ठीठुरन में
वो फुटपाथ पे सोया था,
सर्द हवाओं के वेग से
कभी दायें कभी बायें
करवट बदलता
कभी घेकुड़ी मारता
अपने हाथ के पंजों से
संपूर्ण शरीर को
ढक लेने की कवायद
एक असफल सा प्रयास
वो दांतों का कटकटाना
शरीर पर उसके
जो वस्त्र थे, वस्त्र क्या
जैसे फटे पुराने निर्मूल
चिथड़ों का संग्रह,
शहर तब भी अपने मे मगन
व्यस्तता की प्रकाष्ठा को
पार कर बस भागने में
निर्लिप्त था
कहा किसी को उसके
लिए कोई चिंता थी
संवेदना विहीन चरित्र
एक पल को, रुकने को
तैयार नहीं कोई
किसी को परवाह नहीं
उस निर्पराध, निसहाय
निर्बल , बोझिल जीवन
जीने को मजबूर
उस नीरीह मानव की,
मेरा हृदय चित्कार उठा
मैं गया उसके पास
देखा उसके भावशून्य
पथरा गईं उन आखों में?
पढ न सका वो उलाहना
दे रही थीं, वेदनाएं थीं
पीड़ा या नीजी जीवन
के प्रति मोह,
क्या था उन आंखों में?
वाकई पढ न सका उन
भावना विहीन नेत्रों को…..!!
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”