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26 May 2021 · 3 min read

भारतीय संस्कृति और उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता

विश्व की सर्वोत्कृष्ट आदि,अनादि और प्राचीनतम संस्कृति है भारतीय संस्कृति यह इस भारत भूमि में रहने वाले हर भारतीय केलिए बड़े गौरव का विषय है परंतु ये बड़े दुख का विषय है कि आज इस पावन पवित्र संस्कृति के ऊपर विदेशी संस्कृतियाँ घात लगाए बैठी हैं और इस संस्कृति की निगलने का कोई मौका नहीं छोड़ती ऐसे समय में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति का प्रचार प्रसार कर अपने देश के युवाओं और विद्यार्थियोंको इसका वास्तविक परिचय करवाए । क्योंकि आज जिस पाश्चात्य संस्कृति की ओर हमारे देश के युवा और विद्यार्थी आकर्षित हो रहे है ये एक ऐसा षड्यंत्र है जो युवाओं के और नैतिक पतन का कारण है। हम अपनी संस्कृति रूपी सीता की चरण वंदना न करते हुए पाश्चात्य संस्कृति रूपी शूपनखा का आलिंगन करने को लालायित है जो निश्चित रूप से हमारी जीवनी शक्ति पावन पवित्र बुद्धि का ह्रास कर हमें मानसिक दिवालिया बना कर रख देगी ।
रामचरित्र मानस में आता है की जब शूपनखा ने पंचवटी में श्री राम के रूप सौंदर्य को देखा तो वह राक्षसी का रूप त्यागकर एक अति सुंदर स्त्री का रूप धरण करती है और श्री राम को आकर्षित करने के लिए उन्हें अनेकानेक प्रकार से भरमाने का प्रयत्न करती है लेकिन श्री राम उसके किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते और उस राक्षसी को अपने नाक कान कटवाने पड़ते है ।

इसी प्रकार आज पाश्चात्य संस्कृति विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर हमें अपने षड़यंत्रों मेंफँसाने का प्रयत्न करती है लेकिन हेभारत देश के युवाओं ! हमें इसके झांसे में नहीं आना है अन्यथा ये आपके नाक कान कटवा कर समाज में आपको हंसी का पात्र बना कर रख देगी ।

अपनी संस्कृति के बारे में युवाओं को बताना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमें इस आर्य (श्रेष्ठ)संस्कृति के आधारभूत मूल तत्वों को नष्ट होने से बचाना है। आज जहां हमारे जीवन के हर क्षेत्र में पाश्चात्य संस्कृति ने डेरा डाल दिया है हमारे मनोरंजन के साधन हमारे खाने पीने की चीज़ें,हमारा पहनावा,हमारी भाषा यहाँ तक की हमारी सोच में भी ये नित-निरंतर पकड़ बनाती जा रही है । क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इससेप्रभावित नज़र आते है ।

ये संस्कृति श्रेष्ठ समाज के निर्माण के आधार बनाती है हमारी ऋषि परंपरामें अत्रि,वशिष्ठ,विश्वामित्र,वाल्मीकि,परशुराम,भारद्वाज दधिची जैसे ब्रह्मर्षि और महर्षि हुए हैं । जिन्होंनेहमारे समाजोत्थान के लिए अपनी तप-साधना और अपने तप से संचित समस्त शक्तियों व ज्ञान से भूले भटके अप्रबंधित जीवन जीने वाले अपने लक्ष्यहीन मानवों को दिशा निर्देश देकर श्रेष्ठ व्यक्ति बनाने के लिए और एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण के लिए अपने जीवन को तपाया और आहूत किया है । जिसके फलस्वरूप ये संस्कृति अनेकानेक महापुरुषों को जन्म देती आई है।

जगतगुरु शंकराचार्य,स्वामी विवेकानन्द,दयानंद सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर,ज्योति बाफूले, विनोबाभावे को कौन भूल सकता है। भगत सिंह, राजगुरु,सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद,सुभाष चन्द्र, महात्मा गांधी और सरदार पटेल का समर्पण किसे याद नहीं होगा। राणाप्रताप,शिवाजी महाराज, गुरुनानक,गुरु गोविंद सिंह,के रणकौशल को कौन नहीं जानता होगा। इस देश की महान नारियों तपस्विनियों ने अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए समाज में पुरुषों के समान ही अपना योदान दिया है गार्गी,मदालसा,भारती, स्वयंप्रभा, सीता, दौपदी,राधा,अरुंधती,अनुसूइया के तप तेज से कौन अनभिज्ञ होगा। अपनी मात्रभूमि की रक्षा के लिए मर मिटने वाली झाँसी की रानी, झलकारी बाई और हाड़ारानी को कौन नहीं जानता होगा । ऐसी संस्कृति के अनुयाई हम कहाँ पाश्चात्य की झूठी चकाचौंध में अपनी आयुष्य का नाश कर रहे हैं?

इस संस्कृति की विशेषता रही है कि इसमें रचा बसा व्यक्ति स्वयं के लिए सहनशीलता, सहृदयता सादगी और अनुशासन के भाव से भरा होता है जबकि दूसरों के लिए प्रेम, स्नेह, दया, क्षमा और करुणा के भाव से भीगा रहता है । इस संस्कृति का व्यक्ति केवल अपने पुत्र परिवार के लिए ही नहीं सोचता बल्कि समूचे विश्व को अपना परिवार समझते हुए प्रत्येक प्राणी को अपना परिजन, स्वजनमानता है । ये वो संस्कृति है जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है अत: इस संस्कृति से औरों को जोड़ना और इसका प्रचार -प्रसार करना आवश्यक है ।

पंकज कुमार शर्मा’प्रखर”
लेखक एवं साहित्यकार
कोटा, राज.

Language: Hindi
Tag: लेख
1 Like · 981 Views
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