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———-“भानू”——-(लघुकथा)
भानू ……….. भानु………. शायद आप भानु सूरज को समझ रहे होंगे लेकिन ऐसा नहीं हाँ इसे कभी उगता सूरज मान सकते थे? ये भानू और कोई नहीं मेरे ही पड़ोस में सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक होनहार विधार्थी था। उन दिनों जब मैं डिप्लोमा फाइनल इयर में था और ज्यादातर गांव से ही संस्थान राजकीय पालीटेक्निक शाहजहांपुर साईकिल व कभी कभार मोटरसाइकिल से आया जाया करता था ।संस्थान जो मेरे गाँव से लगभग तेईस किलोमीटर दूर पड़ता था।
घर पर रहने से घरेलू काम काज में भी हाथ बँटा देता था और समय मिलने पर पड़ोस के छोटे बच्चों को पढ़ा दिया करता था जो अक्सर शाम के समय अपना बस्ता व बोरी लेकर मेरी छत पर आ जाते थे जहाँ बैठकर मैं अपनी पढाई किया करता था।
भैया हमहुक पढाइ देउ करो . गणित औ अग्रेंजी ….सरकारी.स्कूल म माट्टर साहब कुछु पढउतइ नाइ ……।
उनके छोटे मुख से इस तरह का अनुनय सुनकर मैं उन्हें प्रतिदिन तथा रविवार को अधिक समय निकालकर पढा दिया करता था ।……
उन्हीं में से था एक भानू जिसके पिताजी एक पियक्कड किस्म के इंसान थे ,जिनसे मेरे पिताजी की बनती नहीं थी। फिर भी भानू सब बच्चों से पहले अपनी माँ के कहने पर पिताजी से छिपकर मेरे पास पढने के लिये चला आता था।यही नहीं वह सभी बच्चों में सबसे मेधावी था एक सवाल एक बार समझा देने के बाद उसी तरह के सभी सवाल खुद झट से कर लेता था।
………….
समय का फेर बदला मैं भी सभी पढ़े – लिखे गाँव वालों की तरह रोजी रोटी के लिए घर से बहुत दूर चला आया .
धीरे धीरे गाँव की सारी यादें भुलाने की कोशिश करता रहा लेकिन ऐसा सम्भव न हुआ।
आज जब दो साल बाद मैंने गाँव में उसी भानू को देखा तो उसके चेहरे से वो चमक गायब थी जो दो साल पहले हुआ करती थी । क्या कर रहे हो भानू ? मैंने पूछा ।यह सवाल सुनकर भानू की निगाहें झुककर पैरों के पास की जमीन ताकने लगी , उसका मुखमंडल फीका पड़ गया और नेत्र सजल हो गए ।जब तक भानू उत्तर देता तब तक पड़ोस में खडा एक लड़का बोल पड़ा – इसके पापा ने आठवीं के बाद से अपने साथ काम पर लगा लिया है।
……..
भनुआ ….. ओ ..भनुआ … किधर हइ ,जल्दी घरइ आउ ? उसके पापा की तेज आवाज स्पष्ट सुनाई दी जब तक मैं कुछ और पूछ पाता वह तेजी से घर के अंदर चला गया ……..। और … मैं अभी वही का वही खड़ा चिंतित मुद्रा में कुछ सोच रहा था। ……
—–@विवेक आस्तिक