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22 Jan 2017 · 1 min read

बेटी बिना आँगन सूना लगता है

कितना भी बड़ा हो, चन्दा बिना आकाश सूना लगता है
कितने भी फूल हों, बेटी बिना आँगन सूना लगता है

बेटी नहीं है बोझ ये तो होती है गुमान परिवार का
इनका सम्मान बताता क्या है मुकाम सभ्यता का
होने लगे चीर हरण जाने गर्त में वो समाज लगता है
कितने भी फूल हों, बेटी बिना आँगन सूना लगता है

दर्द कोई इनके जितना सह जाए सम्भव नहीं है
अपना घर छोड़ अनजान घर बसाना आसान नहीं है
कलेजा भर आता है जब हाथ बाबुल का फिसलता है
कितने भी फूल हों, बेटी बिना आँगन सूना लगता है

लेकर ही क्या जाती हैं बेटियाँ सोचो इस समाज से
फिर क्यों मार देते हैं लोग बेटियों को लोक लाज से
कोख अपनी उजाड़ते क्यों नहीं माँ का दिल पिघलता है
कितने भी फूल हों, बेटी बिना आँगन सूना लगता है

कितना भी बड़ा हो, चन्दा बिना आकाश सूना लगता है
कितने भी फूल हों, बेटी बिना आँगन सूना लगता है

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