बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
एक दिन यूँ ही बैठी,
कुछ सोच रही थी|
अपने आप से पूछे,
एक प्रश्न का उत्तर खोज रही थी|
क्या? क्या? बेटी होना अभिशाप है,
या सृष्टि के लिए कोई वरदान है|
आज भी इस समाज में,
हैं बहुत से ऐसे लोग,
जो बेटी को समझते हैं,
अपने ऊपर एक बोझ|
यह अबोध मानव,
कब यह समझ पाएगा|
बेटियाँ होती हैं अनमोल,
नहीं होती वह किसी पर कोई बोझ| एक मासूम स्नेह के जल में,
सींची गई जिसके जीवन की क्यारियाँ,
और वह इस समाज में फैली,
कुरीतियों से बेखबर,
भर्ती निश्चल किलकारियाँ|
आज अपनी कविता,
शीर्षक:- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
के माध्यम से संदेश देना चाहती हूं,
कि बेटियाँ अभिशाप नहीं वरदान हैं, ईश्वर की अनुपम रचना,
और अनोखा चमत्कार हैं|
एक बार माँ के भीतर से,
आई एक आवाज|
माँ मुझे भी आना है इस संसार में, क्या तू देगी मेरा साथ?
मुझे भी देखना है,
इस सुंदर रंगीन जगत को|
माता-पिता, घर-परिवार,
और सुंदर इस जगत को|
जन्म दे मुझे भी मां तू,
मैं भी जीना चाहती हूं|
भगवान की बनाई सृष्टि को,
मैं ही तो चलाती हूँ|
फिर क्यों? मां! फिर क्यों?
मैं जन्म से पहले ही मिटा दी जाती हूँ|
मेरे होने से सारे जग में उजाला है|
मैंने ही नर को इस सृष्टी पर उतारा है| मुझसे ही जिसका अस्तित्व बना है,
फिर क्यों? फिर क्यों? मुझको मिटाने में वह भीड़ में यूँ खड़ा है|
दुनिया का यह रूप,
मुझे बिल्कुल नहीं भाता है|
कल्पना करके देखो,
बेटी बिन क्या जमाना है|
बेटी तो कुदरत का,
सबसे अनमोल खजाना है|
मुझको यूँ मिटाना,
मानव का सिर्फ एक बहाना है|
कोरी बातें करने से,
अब कुछ नहीं होना है|
अपनी करनी का बोझ,
मानव,तुझको भविष्य में ढोना है|
नहीं बनेगी कली,
तो बगिया कैसे महकेगी|
फूल बनकर नहीं खिली तो,
जिंदगी कैसे चहकेगी|
रोक लो कलियों और फूलों का,
यूँ झड़ना, नहीं तो वीरान हो जाएगी, सृष्टि की संपूर्ण रचना|
वर्तमान को बचाओगे,
तभी तो भविष्य पाओगे|
नहीं तो आगे जाकर सुभाष, गांधी, भगत और जवाहर कहाँ से लाओगे| सुनो,बिटियों की आहट को|
जीवन तो उसकी चाहत को|
जनम दे उसे भी माँ,
वह भी जीना चाहती है|
ईश्वर की बनाई सृष्टि को,
वह भी देखना चाहती है|
मानव को यह समझना है,
इस बात का बोध जीवन में रखना है|
माँ, अम्मा या हो आई,
हर रूप में बेटी ही समाई|
बेटी बनकर दुर्गा आई,
झाँसी की रानी हो,
या हो लक्ष्मीबाई|
परिवार रूपी ध्वजा का चक्र,
चाहे हो हर भाई,
मगर तीनों रंगों में सिर्फ,
बेटियाँ ही समाई|
हरित वसुंधरा का उर,
शुद्र शुचिता इस में समाई|
रंग केसरिया की बानगी देख इठलाई|
क्या सुनाए गाथा बेटियों की,
कोई न कर पाया इन की भरपाई|पराक्रम की पराकाष्ठा को मात देने, बेटियां हैं आईं|
चाहे दौड़ की हो उड़नपरी,
या कुश्ती की आजमाइश,
स्वर्ण पदक दिलवाने में,
सबसे आगे बेटियाँ आई|
तुम गर्व हो, जुनून हो,
सृष्टि की अगवाई|
हे नर!श्रेष्ठ,
कन्या हत्या की न करना भूल भारी| मिट जाएगा अस्तित्व तुम्हारा,
घड़ी वह होगी प्रलयकारी|
बचाओ इनको,पढ़ाओ खूब तुम इनको यह हैं बेटियाँ तुम्हारी|
सवारों आज और कल इनका,
बेटों से भी ज्यादा नाम कमाएँगी,
बेटियां तुम्हारी|
त्याग कर अपना झूठा दंभ,
साक्षर करो अपनी बेटियाँ|
न करो अंत इनके जीवन का,
लक्ष्मी स्वरुप हैं बेटियाँ तुम्हारी|
न होंगी बेटियाँ,
तो चलेगा कैसे यह सृष्टि चक्र|
अंत हो जाएगा संपूर्ण सृष्टि का,
न होंगी बेटियाँ जब|
करो साक्षर इनको,
दो आदर-सत्कार इन को भरपूर|
ईश्वर की अनुपम रचना का,
स्वागत करो खुशी से तुम|
ईश्वर की अनुपम रचना का,
स्वागत करो खुशी से तुम|
(बेटी दिवस के अवसर पर समस्त बेटियों को उपहार स्वरूप|)