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21 Jan 2017 · 1 min read

बेटियाँ

श्रृंगार रस में जब जब सजती हैं बेटियाँ
बड़ी नाजुक सी कोमल सी दिखती हैं बेटियाँ

वक्त आये तो दुर्गा रुप भी धरती हैं बेटियाँ
माँ बाप की जब ढाल बनती हैं बेटियाँ

दिलों की इक इक तार से जुड़ती हैं बेटियाँ
इक इक साँस में प्यार भरती हैं बेटियाँ

मूर्ख हैं जो समझते हैं बेटी बोझ कन्धों का
वक्त पड़े तो बोझ उठाती हैं बेटियाँ

वारिस समाज ने बनाया है बेटों को
पर दर्द समेटने आखिर आती हैं बेटियाँ

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