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14 Mar 2018 · 1 min read

बेचारा कवि-मन (कविता)

बेचारा कवि-मन (कविता)

ओफ़्फ़ो ! कितना शोर है इस शहर में ,

भला ! मैं अपने वास्ते सुकून कहाँ से पायुं

कोलाहल मचा रहता है हर समय यहाँ,

लगता है डर कही पागल न हो जायुं .

इस कोलाहल का ,इस शोर का ऐसा है असर ,

अमन की तलाश में बस भटकती ही जायुं .

हर घड़ी डोलती रहती है जो विचारों की नैया ,

नहीं होती वश में मैं स्थिरता कहाँ से लायुं?

मचलते तो हैं बहुत ज़ज्बात मेरे बेतहाशा ,

मगर क्या मज़बूरी है जो इन्हें लफ्ज़ न दे पायुं .

कल्पना मेंतो साकार होती है सुन्दर काव्य-कामिनी ,

लेकिन धूमिलहो जाती है जब भी मैं कलम उठायुं .

भाव-पक्ष कमज़ोर हो जाये कभी कला -पक्ष,

अपने कवि होने के संदेह में अक्सर खो जायुं .

ज़ाहिर है कवि मन को चाहिए एकाग्रता और शांति ,

भला इस सारे जगत में इसे कहाँ से ढूंढ कर लायुं ?

उफ़ ! यह जीवन की विषम परीस्थितियां और दुर्भाग्य ,

संवेदनाओं से भरे इस बेचारे कवि-मन का दर्द किसे बताऊँ?

Language: Hindi
375 Views
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