बेचारा कवि-मन (कविता)
बेचारा कवि-मन (कविता)
ओफ़्फ़ो ! कितना शोर है इस शहर में ,
भला ! मैं अपने वास्ते सुकून कहाँ से पायुं
कोलाहल मचा रहता है हर समय यहाँ,
लगता है डर कही पागल न हो जायुं .
इस कोलाहल का ,इस शोर का ऐसा है असर ,
अमन की तलाश में बस भटकती ही जायुं .
हर घड़ी डोलती रहती है जो विचारों की नैया ,
नहीं होती वश में मैं स्थिरता कहाँ से लायुं?
मचलते तो हैं बहुत ज़ज्बात मेरे बेतहाशा ,
मगर क्या मज़बूरी है जो इन्हें लफ्ज़ न दे पायुं .
कल्पना मेंतो साकार होती है सुन्दर काव्य-कामिनी ,
लेकिन धूमिलहो जाती है जब भी मैं कलम उठायुं .
भाव-पक्ष कमज़ोर हो जाये कभी कला -पक्ष,
अपने कवि होने के संदेह में अक्सर खो जायुं .
ज़ाहिर है कवि मन को चाहिए एकाग्रता और शांति ,
भला इस सारे जगत में इसे कहाँ से ढूंढ कर लायुं ?
उफ़ ! यह जीवन की विषम परीस्थितियां और दुर्भाग्य ,
संवेदनाओं से भरे इस बेचारे कवि-मन का दर्द किसे बताऊँ?